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सिद्धान्त
है । यदि उत्पाद, स्थिति और व्यय न होते तो तीन व्यक्तियो के तीन प्रकारके भाव न होते, क्योंकि प्यालेके नाशके विना प्यालेकी आवश्य कतावालेको शोक नही हो सकता, मालाके उत्पादके विना मालाक आवश्यकतावालेको हर्ष नही हो सकता और सुवर्णकी स्थिरताके बिन सुवर्णके इच्छुकको प्यालेके विनाश और मालाके उत्पादने माध्यस्थ्य नही रह सकता । अत वस्तु सामान्यसे नित्य है ।' ( और विशेष अर्थात् पर्यायरूपसे अनित्य है ) ।
निष्कर्ष यह है कि जैन दर्शनमे द्रव्य ही एक तत्त्व है, जो कि ६ प्रकारका है और वह प्रति समय उत्पाद व्यय और प्रोव्य स्वरूप है अतएव वह द्रव्यदृष्टिसे नित्य है और पर्यायदृष्टिसे अनित्य है । अ प्रत्येक द्रव्यका परिचय कराया जाता है ।
४. जीवद्रव्य चन्द
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जैनाचार्य श्रीकुन्दकुन्दने जीबका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है - ‘अरसमख्वमगघं अव्वत्त वेदणागुणमसछ ।
जाण अलिंगग्गहण जीवमणिद्दिट्ठसठाण ॥२-८०॥ '
-प्रवच०
'जिसमे न कोई रस है न कोई रूप है और न किसी प्रकारक गंध है, अतएव जो अव्यक्त है, शब्दरूप भी नही है, किसी भौतिक चिह्नसे भी जिसे नही जाना जा सकता और न जिसका कोई निर्दिष्ट आकार ही है, उस चैतन्यगुण विशिष्ट द्रव्यको जीव कहते है ।
इसका यह आशय है कि जिसका चेतनागुण है, वह जीव है और वह जीव पुद्गल द्रव्यसे जुदा है, क्योकि पुद्गलद्रव्य रूप, रस । गन्ध और स्पर्श गुणवाला तथा साकार होता है, किन्तु जीवद्रव्य ऐस नही है । अत जीवद्रव्य जडतत्त्वसे जुदा एक वास्तविक पदार्थ है और भी
'जीवो त्ति ह वदि चेदा उवयोगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसजुत्तो ॥२७॥ - पचास्ति०