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जैनवमं
इसका ईश्वरेच्छाके सिवाय कोई सन्तोषकारक समाधान नहीं मिलता। किन्तु कर्ममे ही फलदानकी शक्ति माननेवाला कर्मवादी जनसिद्धान्त उक्त प्रश्नोका बुद्धिगम्य समाधान करता है जो कि आगे बतलाया है । अतः ईश्वरको फलदाता मानना उचित नही जँचता ।
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कर्मके भेद
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पहले बतलाया है कि जैनदर्शनमे कर्मसे मतलब जीवकी त्येक क्रियाके साथ जीवकी ओर आकृष्ट होनेवाले कर्मपरमाणुओसे है । वे कर्मपरमाणु जीवको प्रत्येक क्रियाके साथ, जिसे जैनदर्शनमें के नामसे कहा गया है, जीवकी ओर आकृष्ट होते है और आत्माके राग, द्वेप और मोह आदि भावोंका, जिन्हें जैनदर्शनमें कपाय कहते हूँ, निमित्त पाकर जीवसे बंध जाते हैं । इस तरह कर्मपरमाणुओंको जीवतक लानेका काम जीवको योगशक्ति करती है और उसके साथ न्ध करानेका काम कपाय अर्थात जीवके राग-द्वेपरूप भाव करते है । रांग यह है कि जीवकी योगशक्ति और कपाय ही वन्धका कारण ई । कषायके नष्ट हो जानेपर योगके रहनेतक जीवमें कर्मपरमाणुओका आस्रव-आगमन तो होता है किन्तु कपायके न होनेके कारण वे हर नही सकते । उदाहरणके लिये, योगको वायुकी, कषायको
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की, जीवको एक दीवारकी और कर्मपरमाणुओको वूलकी उपमा दी जा सकती है। यदि दीवारपर गोंद लगी हो तो वायुके साथ उड़कर भानेवाली धूल दीवारसे चिपक जाती है, किन्तु यदि दीवार साफ, चिकनी और सूखी होती है तो धूल दीवारपर न चिपककर तुरन्त झ ड़ती है । यहाँ धूलका कम या ज्यादा परिमाणमें उड़कर आना वायुके त्रेगपर निर्भर है। यदि वायु तेज होती है तो धूल भी खूब उडती
और यदि वायु धीमी होती है तो घूल भी कम उड़ती है । तथा दीवारपर घूलका थोड़े या अधिक दिनोंतक चिपके रहना उसपर की गोद मादि गीली वस्तुओंकी चिपकाहटको कमीवेशी पर निर्भर है। यदि दीवारपर पानी पड़ा हो तो उसपर लगी हुई धूल जल्दी झड़
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