Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 272
________________ सामाजिक रूप २७१ जातिविशेषके लिए न होकर प्राणिमात्रके लिए होता है। उसे सुननेके लिए मनुष्य देव, स्त्री पुरुष, पशु-पक्षी सभी आते है। और अपनी अपनी रुचि , श्रद्धा और शक्तिके अनुसार हितकी वात लेकर चले जाते. है। किन्तु जो लोग उनकी बातोको स्वीकार करते है और जो स्वीकार, नही करते, वे दोनों परस्परमें बँट जाते है और इस तरहसे सम्प्रदाय कायम हो जाता है। ___भगवान् महावीरसे ढाई सौ वर्ष पहले भगवान् पार्श्वनाथ हो चुके थे। भगवान् महावीरके समयमे भी उनके अनुयायी मौजूद थे। उन्हीमे से भगवान् महावीरके माता-पिता थे। भगवान् महावीरने भी उसी मार्गपर चलकर तीर्थङ्कर पद प्राप्त किया और उसी मार्गका उपदेश किया। इस तरहसे उनके समयमें समस्त जैनसंघ अभिन्न था। और आगे भी अभिन्न रहा । किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहुर्के समयमे मगधर्म जो भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, उसने संघभेदको जन्म दिया। ____दिगम्बरोंकी मान्यताके अनुसार सम्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। उस समय जैन साधुओंकी संख्या, बहुत ज्यादा थी। सवको भिक्षा नही मिल सकती थी। इस कारण बहुतसे निष्ठावान् दृढ़वती साधु श्रुतकेवली भद्रवाहुके साथ दक्षिण भारतको चले गये और शेष स्थूलभद्रके साथ वही रह गये। स्थूलभद्रके आधिपत्यमे रहनेवाले साधुओंने सामयिक परिस्थितियोंसे पीडित होकर वस्त्र, पात्र, दण्ड वगैरह उपधियोंको स्वीकार कर लिया। जब दक्षिणको गया साधुसंघ लौटकर आया और उसने वहाँके साधुओंको वस्त्र, पात्र वगैरहके साथ पाया तो उन्होने उनको समझाया। मगर' वे माने नही, फलत. संघभेद हो गया। नग्नताके पोषक साधु दिगम्बर कहलाये और वस्त्र-पात्रके पोषक साघु श्वेताम्बर कहलाये। श्वेताम्बरोंकी मान्यताके अनुसार मगधमे दुर्मिक्ष पड़नेपर भद्रबाहु स्वामी नेपालकी ओर चले गये थे। जव दुर्भिक्ष हटा और पाटलीपुत्रम बारह अगोंका संकलन करनेका आयोजन किया गया तो भद्रबाहु

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