________________
४ १५६
जनधर्म है वह कार्य बुरा कहलाता है। जैसे, एक डाक्टर अच्छा करनेके भावसे रोगीको नश्तर देता है। रोगी चिल्लाता है और तड़फता है फिर भी डाक्टरका कार्य बुरा नहीं कहलाता, क्योकि उसका इरादा बुरा नहीं है। तथा एक मनुष्य किसी धनी युवकसे मित्रता जोडकर उसका धन हथियानेके इरादेसे प्रतिदिन उसकी खुशामद करता है, उसे तरह तरहके सिब्जबाग दिखाकर वेश्या और शराबसे उसकी खातिर करता है। उसका यह काम बुरा है क्योकि उसका इरादा बुरा है। इसी तरह और भी अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते है। अत. प्रवृत्तिका अच्छा या दुरापन कर्ताके भावोपर निर्भर है, न कि कार्यपर। ऐसी स्थितिमे मजो लोग लौकिक सुखकी इच्छासे प्रेरित होकर धर्माचरण करते है
उनका वह धर्माचरण यद्यपि बुरे कार्योंमे लगनेकी अपेक्षा अच्छा नाही है तथापि जिस दृष्टिसे धर्माचरणको कर्तव्य बतलाया है उस दृष्टिसे वह एक तरहसे निष्फल ही है, क्योकि लौकिक वैषयिक सुखकी लालसामें फंसकर हम उस चिरस्थायी आत्मिक सुखकी बातको भूल जाते है,
जो धर्माचरणका अन्तिम लक्ष्य है, और ऐसे ऐसे कार्य कर बैठते है हु जिनसे बहुत कालके लिये उस चिरस्थायी सुखकी आशा नष्ट हो जाती है
यद्यपि सुखलाभकी प्रवृत्ति जीवका स्वभावसिद्ध धर्म है। वही प्रवृत्ति जीवोंको अच्छे या बुरे कार्यों में लगाती है। किन्तु एक तो जीवोंको सच्चे सुखकी पहिचान नहीं है। वे समझते हैं कि इन्द्रियोके विषयोंमे ही सच्चा सुख है । इसलिये वे उन्हीकी प्राप्तिका प्रयत्न करते है और उसीके लोभसे धर्माचरण भी करते है। किन्तु ज्यो ज्यों उन्हे विषयोंकी प्राप्ति होती जाती है त्यो-त्यों उनकी विषयतृष्णा बढती जाती है। उस तृष्णाकी पूर्तिके लिये वे प्रतिदिन नये नये उपाय रचते है, अनर्थ करते है, बलात्कार करते है, दूसरोंको सताते है,
उचित अनुचितका विचार किये विना जो कुछ कर सकते है करते है, प्रताकिन्तु उनकी तृष्णा शान्त नहीं होती। अन्तमे तृष्णाको शान्त करनेकी उनमें वे स्वयं ही गान्त हो जाते है और अपने पीछे पापोंकी पोटरी