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जैनधर्म
नाया । इस वंशके जैनधर्मी राजाओ में अमोघवर्ष प्रथमका नाम ल्लेखनीय है । यह राजा दिगम्बर जैनधर्मका बडा प्रेमी था । अपनी न्तिम अवस्थामे इसने राजपाट छोडकर जिन दीक्षा ले ली थी । सके गुरु प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेन थे। जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने पने उत्तरपुराणमें लिखा है कि अमोघवर्ष अपने गुरु जिनसेनके रणकमलों की वन्दना करके अपनेको पवित्र हुआ मानता था । सने जैन मन्दिरोको दान दिया, तथा इसके समयमे जैन साहित्यकी
t खूब उन्नति हुई । दिगम्बर जैन सिद्धान्त ग्रन्थोंकी धवला और raamा नामकी टीकाओका नामकरण इसीके धवल और अतिशय वल नामके ऊपर हुआ समझा जाता है। शाकटायन वैयाकरणने पने शाकटायन नामक जैन व्याकरणपर इसीके नामसे अमोधवृत्ति
की टीका बनाई । इसीके समयमें जैनाचार्य महावीरने अपने णितसारसंग्रह नामक ग्रन्थकी रचना की, जिसके प्रारम्भमे अमोघवर्षमहिमाका वर्णन विस्तारसे किया गया है । अमोघवर्षने स्वयं भी श्नोत्तर रत्नमाला' नामकी एक पुस्तिका रची। स्वामी जिनसेनने अनेक ग्रन्थ रचे ।
अमोघवर्षने जिनसेनके शिष्य गुणभद्रको भी आश्रय दिया । भद्रने अपने गुरु जिनसेनके अधूरे ग्रन्थ आदिपुराणको पूर्ण किया और अन्य भी अनेक ग्रन्थ रचे । अमोघवर्षका पुत्र अकालवर्ष भी धर्मका प्रेमी था । इसके समयमे गुणभद्रने अपना उत्तरपुराण र्ण किया । इसने भी जैनमन्दिरोको दान दिया और जैन विद्वानोT सन्मान किया । जब पश्चिमके चालुक्योने राष्ट्रकूटोकी सत्ताका न्त कर दिया तो इस वशके अन्तिम राजा इन्द्रने अपने राज्यको पुनः प्त करनेका यत्न किया किन्तु उसे सफलता नही मिली । अन्तमें सने जिनदीक्षा धारण करके श्रवणबेलगोलामे समाधिपूर्वक प्राणोका ग किया । लोकादित्य इनका सामंत और वनवास देशका राजा । गुणभद्राचार्यने इसे भी जैनधर्मकी वृद्धि करनेवाला और महान् शस्वी बतलाया है ।