Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Sadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam

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Page 10
________________ ( ख ) या किसी के द्वारा मारे जाते हों, पीड़ित किये जाते हों तो उस समय हम यही चाहते हैं कि कोई हमको बचाले, हमारे प्राणों की रक्षा करे, हमको कष्ट से मुक्त करे। यदि हम भूखे हों, तो यही चाहते हैं कि कोई हमको भोजन दे । यदि हम प्यासे हों, तो यही चाहते हैं कि कोई हमें पानी पिला दे । यदि हम घीमार हों, तो यही चाहते हैं कि कोई हमें रोग से मुक्त कर दे । इसलिए हमारा भी यह कर्तव्य हो जाता है, कि हम भी उन मरते हुए, कष्ट पाते हुए, भूखे प्यासे या बीमार लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार करें। इस कर्तव्य का पालन करना, आत्मा के स्वाभाविक धर्म का पालन करना है, परन्तु तेरह - पन्थ सम्प्रदाय की मान्यताएँ आत्मा के इस स्वाभाविक धर्म को भी नष्ट करती हैं और इसमें भी पाप बताती हैं। प्रकारान्तर से मानव में से मानवता को ही नष्ट करती हैं। अपनी मान्यताओं को तेरह - पन्थी लोग भी जैन शास्त्रानुसार ताते हैं, परन्तु यह हम अगले प्रकरणों में बतावेंगे कि तेरह - पन्थ की मान्यताएँ जैन शास्त्रानुसार नहीं हैं, किन्तु जैन शास्त्रों के नाम पर कलंक लगाने वाली हैं। यह बात श्रावकों को ज्ञात न हो जावे, श्रावक लोग शास्त्र की उन बातों को न जान सकें, इस उद्देश्य से तेरह - पन्थी साधुओं ने श्रावकों का सूत्र पढ़ना ही जिनाज्ञा के बाहर बताया है और जिनाज्ञा से बाहर के समस्त कार्य, वे प्राप ही मानते हैं। इस प्रकार तेरह-पन्थी साधु, श्रावकों -

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