Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ (IV) १७ वर्षके लम्बे कालमें आपको तृण मात्र भी सहायता इस सन्दर्भ में कहीं से प्राप्त नहीं हुई। यहाँ तक कि कागज जुटाना, उसे काटना तथा जिल्द बनाना आदि का काम भी आपने अपने हाथ से ही किया । यह केवल उनके हृदयमें स्थित सरस्वती माता की भक्तिका प्रताप है कि एक असंभव कार्य भी सहज संभव हो गया और एक ऐसे व्यक्तिके हाथसे संभव हो गया जिसकी क्षीण कायाको देखकर कोई यह विश्वास नहीं कर सकता कि इसके द्वारा कभी ऐसा अनहोना कार्य सम्पन्न हुआ होगा। भक्ति में महान शक्ति है. यही कारण है कि वर्णीजी अपने इतने महान् कार्यका कर्तृत्व सदा माता सरस्वतीके चरणों में समर्पित करते आये हैं और कोश को सदा उसी की कृति कहते आये हैं। यह है भक्ति तथा कृतज्ञताका आदर्श । - यह कोश साधारण शब्द-कोश जैसा कुछ न होकर अपनी जाति का स्वयं एक ही कोश है। शब्दार्थ के अतिरिक्त शीर्षकों, उपशीर्षकों तथा अवान्तर शीर्षकों में विभक्त वे समस्त सूचनायें इसमें निबद्ध हैं जिनकी कि किसी भी प्रवक्ता, लेखक अथवा संधाता को आवश्यकता पड़ती है। शब्द का अर्थ, उसके भेद-प्रभेद, कार्यकारणभाव, हेयोपादेयता, निश्चय-व्यवहार तथा उसकी मुख्यता गौणता, शंका समाधान, समन्वय आदि कोई ऐसा विकल्प नहीं जो कि इसमें सहज उपलब्ध न हो सके। विशेषता यह है कि इसमें रचयिताने अपनी ओर से एक शब्द भी न लिखकर प्रत्येक विकल्पके अन्तर्गत अनेक शास्त्रोंसे संकलित आचार्यों के मूल वाक्य ही निबद्ध किए हैं। इसलिए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिसके हाथ में यह महान् कृति है उसके हाथमें सकल जैन-वाड्म य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशका अब तृतीय संस्करण प्रकाशित हुआ है । इसे भोपालकी जैन समाज ने देश-विदेशके विभिन्न विश्वविद्यालयों को अपनी ध नराशि से उपलब्ध कराने का प्रबन्ध किया है । इसका पंचम इण्डैक्स खण्ड, भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है । जैन दर्शनके अध्येताओं के लिये श्रद्धेय वर्णी जी की यह अभूतपूर्व देन है। सुरेश कुमार जैन पानीपत Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 244