Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 18
________________ १६ / जैन दर्शन के मूल सूत्र आत्मा और परमात्मा महावीर ने किसी शास्त्र को ईश्वरीय ज्ञान नहीं माना। उन्होंने यह घोषणा की कि ज्ञान का मूल स्रोत मनुष्य है। आत्मा से भिन्न कोई परमात्मा नहीं है । आत्मा ही कर्मबन्धन से मुक्त होकर परमात्मा बनती है । उनके दर्शन में स्वतः प्रामाण्य शास्त्र का नहीं है, मनुष्य का है। वीतराग मनुष्य प्रमाण होता है और अन्तिम प्रमाण अपनी वीतराग दशा है । सहअस्तित्व महावीर अनेकात्मवादी थे। उन्होंने बताया- आत्माएं अनन्त हैं । वे किसी एक आत्मा के अंश नहीं हैं। प्रत्येक आत्मा दूसरी आत्मा से स्वतन्त्र है । सब आत्माओं में चैतन्य है, पर वह सामुदायिक नहीं है । वह हर आत्मा का अपना-अपना है, स्वतन्त्र है । जैसे आत्माएं अनेक हैं, वैसे ही उनकी योनियां भी अनेक हैं । कोई आत्मा पशु-जीवन में है और कोई मनुष्य जीवन में। मनुष्य जीवन में भी अनेक विभाजन हैं। कोई मनुष्य शीत कटिबन्ध में जन्मा हुआ है तो कोई उष्ण कटिबन्ध में । कोई गोरा है तो कोई काला है। महावीर के युग में भारतीय मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन चार वर्णों में बंटा हुआ था । ये विभाजन मनुष्य के अपने कर्म - संस्कार, भौगोलिक वातावरण और समाज-व्यवस्था के आधार पर हुए थे। पर मनुष्य का अहंकार प्रबल होता है। जिस वर्ग को अहंकार प्रकट करने की सुविधा मिली, उसने उच्चता और नीचता की दीवारें खड़ी कर दीं। जन्मना जाति स्थापित हो गई। उच्च कहलाने वाले मनुष्य नीच कहलाने वाले मनुष्य के साथ पशु से भी हीन व्यवहार करने लगे। इस स्थिति में महावीर ने चिन्तन किया कि वस्तु-जगत में समन्वय है, सहअस्तित्व है तो फिर मानव जगत में समन्वय और सहअस्तित्व क्यों नहीं होना चाहिए? इस उत्प्रेक्षा के आधार पर उन्होंने मैत्री का सूत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा- सब जीवों के साथ मैत्री करो | मैत्री का सिद्धांत बहुत अच्छा है। सिद्धांत का सौन्दर्य व्यवहार का सौन्दर्य बन जाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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