Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

Previous | Next

Page 44
________________ ४२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र होगा। सब पदार्थ एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो एक-दूसरे से कटा हुआ हो। जानना पड़ेगा। यह लड़का है। इसका पिता, इसकी मां, मां की मां, फिर उसकी मां की मां, चलते चलें, बाप,बाप का बाप, फिर बाप का बाप। वह कहां से आया, कैसे जीया, वह कहां पैदा हुआ, उसका किन पर प्रभाव पड़ा, कहां पढ़ा, किसने पढ़ाया। एकएक बात पर विचार करते चले जाएं। कुछ पता ही नहीं चलेगा। इसलिये जैन दर्शन ने एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया- 'जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ'। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है जो सबको जानता है, वही एक को जान सकता है। यानी सबको जाने बिना एक को नहीं जाना जा सकता और एक को जाने बिना सबको नहीं जाना जा सकता। हमारा सारा संसार सम्बन्धों से जुड़ा हुआ है। कोई भी पदार्थ एकदूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं है। सब जुड़े हुए हैं। यह एक महान दार्शनिक दृष्टिकोण है--निश्चय का दृष्टिकोण। आप किसी को अलग नहीं कर सकते। इसी आधार पर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहा जा सकता है। कहा जा सकता है कि सारा संसार तेरा परिवार है। सब आपस में जुड़े हुए हैं। कोई अलग नहीं है। दो-चार भाई आए। बैठे। बातचीत हुई। एक ने कहा- यह मेरा भाई है। किसी ने कहा-यह मेरा मामा है। किसी ने कहा- यह मेरा पिता है। एक ही व्यक्ति किसी का भाई बन गया, किसी का मामा बन गया और किसी का बेटा बन गया। एक व्यक्ति के साथ हजारों सम्बन्ध । सम्बन्धों का ऐसा ताना-बाना बुना हुआ है कि एक व्यक्ति लाखों-करोड़ों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। यह तो बहुत स्थूल बात है। सूक्ष्म जगत में जाएं तो सम्बन्धों का सिलसिला इतना लम्बा है कि मनुष्य कभी अलग हो ही नहीं सकता। हम स्थूल सचाई को देखते हैं तो हमारी दृष्टि स्थूल होती है। किन्तु जब सूक्ष्म सचाई को देखना होता है तो दृष्टि भी सूक्ष्म चाहिए। जैन दर्शन ने दो दृष्टियों का प्रतिपादन किया-एक सूक्ष्म दृष्टि और दूसरी स्थूल दृष्टि। हम स्थूल दृष्टि से देखते हैं तो कपड़ा सफेद है, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164