Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 73
________________ प्रत्ययवाद और वस्तुवाद / ७१ होता है। ज्ञाता के जानने के क्षणों में वह निर्मित नहीं होता और ज्ञाता के न जानने के क्षणों में वह विलुप्त नहीं होता। प्रत्ययवादियों का तर्क है-ज्ञेय स्वतन्त्र हो तो उसका अनुभव सबको समान होना चाहिए, किन्तु वैसा नहीं होता। एक ही वस्तु को अनेक लोग अनेक रूपों में जानतेदेखते हैं। इस भेद का कारण हमारे मन में है। यह तर्क बहुत गम्भीर नहीं है। हमारा ज्ञान सापेक्ष होता है । इसलिए एक वस्तु को अनेक लोग अनेक रूपों में जानते-देखते हैं। देश, काल, वातावरण, रुचि, पूर्व-मान्यता, झुकाव, मन की ग्रहणशक्ति का तारतम्य आदि मिलकर सापेक्षता का निर्माण करते हैं। इस सापेक्षदृष्टि से वस्तुवादियों का यह सत्यांश समर्थित होता है कि वस्तु की सत्ता हमारे मन में नहीं है। बर्टेण्ड रसेल की यह उक्ति महत्त्वपूर्ण है कि 'वृक्ष हमारे मन में नहीं है। वृक्ष का विचार मन में है, किन्तु वृक्ष नहीं।' वस्तु की सत्ता मन से स्वतन्त्र होने पर ही उसमें ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध हो सकता है । एफ.सी.एस. शिलर ने प्रत्ययवादी होते हुए भी इसे स्वीकृति दी है। उनका अभ्युपगम है कि जिस प्रकार वस्तु के लिए मन की आवश्यकता है उसी प्रकार मन को मनन करने के लिए वस्तु की आवश्यकता है। अनेकान्त दर्शन ने जात्यन्तर के सिद्धान्त की स्थापना की। उसका तात्पर्य यह है कि भेद और अभेद जैसा स्वतन्त्र गुण कोई नहीं है। जहां भेद है वहां अभेद है और जहां अभेद है वहां भेद। भेदाभेद ही वास्तविक है। ज्ञाता ज्ञेय से सर्वथा भिन्न नहीं है। यदि वह ज्ञेय से सर्वथा भिन्न हो तो उनमें ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं हो सकता। यदि वह सर्वथा अभिन्न हो तो भी उनमें ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं हो सकता। वे भिन्न-अभिन्न हैं। ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध परस्पराश्रित है, इसलिए परस्पराधीन है। शेलिंग का यह तर्क- 'विषयों की सिद्धि पर उनकी ज्ञाता आत्मा की सिद्धि और ज्ञाता की सिद्धि पर उनके ज्ञेय विषयों की सिद्धि निर्भर है, अर्थपूर्ण नहीं है। मूल आधार अस्तित्व है। ज्ञाता और ज्ञेय का एक सम्बन्ध है। अस्तित्व होने पर सम्बन्ध होता है। सम्बन्ध से अस्तित्व नहीं होता। 'होना' और 'सिद्ध होना'- दोनों एक बात नहीं है। परमाणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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