Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 83
________________ परिणामि-नित्य/ ८१ परिवर्तन उसके अपने अस्तित्व में स्वयं सन्निहित है। परिणमन सामुदायिक और वैयक्तिक- दोनों स्तर पर होता है। पानी में चीनी घोली और वह मीठा हो गया। यह सामुदायिक परिवर्तन है। आकाश में बादल मंडराए और एक विशेष अवस्था का निर्माण हो गया। भिन्न-भिन्न घरमाणु-स्कंध मिले और बादल बन गया। कुछ परिणमन द्रव्य के अपने अस्तित्व में होते हैं। अस्तित्वगत जितने परिणमन होते हैं, वे सब वैयक्तिक होते हैं। पांच अस्तिकाय (अस्तित्व) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय में स्वाभाविक परिवर्तन ही होता है। जीव और पुद्गल में स्वाभाविक और प्रायोगिक-दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इनका स्वाभाविक परिवर्तन वैयक्तिक ही होता है किन्तु प्रायोगिक परिवर्तन सामुदायिक भी होता है। जितना स्थूल जगत है वह सब इन दो द्रव्यों के सामुदायिक परिवर्तन द्वारा ही निर्मित है। जो कुछ दृश्य है, उसे जीवों ने अपने शरीर के रूप में रूपायित किया है। इसे इन शब्दों में भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि हम जो कुछ देख रहे हैं वह या तो जीवच्छरीर हैं या जीवों द्वारा त्यक्त शरीर है। प्रत्येक अस्तित्व का प्रचय (काल, प्रदेश राशि) होता है। पुद्गल को छोड़कर शेष चार अस्तित्वों का प्रचय स्वभावत: अविभक्त है। उसमें संघटन और विघटन-ये दोनों घटित होते हैं। एक परमाणु का दूसरे परमाणुओं के साथ योग होने पर स्कन्ध के रूप में रूपान्तरण हो जाता है और उस स्कन्ध के सारे परमाणु वियुक्त होकर केवल परमाणु रह जाते हैं। वास्तविक अर्थ में सामुदायिक परिणमन पुद्गल में ही होता है। दृश्य अस्तित्व केवल पुद्गल ही होता है। जगत के नाना रूप उसी के माध्यम से निर्मित होते हैं। यह जगत एक रंगमंच है। उस पर कोई अभिनय कर रहा है तो वह पदगल ही है। वही विविध रूपों में परिणत होकर हमारे सामने प्रस्तुत होता है। उसमें जीवन का भी योग होता है, किन्तु उसका मुख्य पात्र पुद्गल ही है। . अस्तित्व में परिवर्तित होने की क्षमता है। जिसमें परिवर्तित होने की क्षमता नहीं होती, वह दूसरे क्षण में अपनी सत्ता को बनाए नहीं रख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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