Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 124
________________ १२२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र भिन्न है । व्याख्या के इस कोण से पहला कोण अधिक संगत है । इस प्रश्न पर पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी काफी विचार किया है। जिज्ञासा की गई कि आत्मा और शरीर दो हैं या एक ? नास्तिक दर्शन आत्मा और शरीर को अभिन्न स्वीकार करते हैं। कुछ आत्मवादी दर्शन दोनों को सर्वथा भिन्न मानते हैं । सापेक्ष दृष्टि से ही इसका सम्यक् समाधान किया जा सकता है। सर्वथा अभेद मानने पर एक दूसरे पर प्रभाव नहीं हो सकता । यदि धूप और आकाश सर्वथा अभिन्न हैं, तो दोनों का एक दूसरे पर प्रभाव नहीं माना जा सकता । 'वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नः ' यदि उनमें सर्वथा भेद माने तो आकाश का धूप और वर्षा से क्या लेना देना ? भगवान महावीर ने कहा- इनमें भेद भी है अभेद भी है। प्रभाव भी है, अप्रभाव भी है । शरीर रूपी भी है, अरूपी भी है। 'रूप्यते इति रूपी' जो दिखाई दे, वह रूपी है । दृश्य पदार्थ रूपी है, अदृश्य पदार्थ अरूपी हैं । कर्मशरीर अत्यन्त सूक्ष्म है। प्रोटोप्लाज्मा की भांति अदृश्य है, इसलिए वह अरूपी है। 1 शरीर सचित्त भी है, अचित्त भी है । जीवन्त शरीर सचित्त है, सप्राण है । मृत शरीर अचित्त है, निष्प्राण है । इस सदंर्भ में एक और महत्वपूर्ण प्रश्न उभरा - जीव शरीर कैसे ? क्या जीव शरीर है ? उत्तर की भाषा है- जीव शरीर है । 'जीवति प्राणान् धारयति इति जीव: ' जो जीता है प्राणों को धारण करता है वह जीव है । औदारिक शरीर श्वासोच्छ्वास लेता है इसलिए जीव है। हम कर्म शरीर के आधार पर जीव नहीं है। हम जीव हैं औदारिक शरीर के आधार पर। तब तक हमारा जीवन है जब तक हम जीवित हैं। मरने के बाद जीवन नहीं होता। एक प्राणी एक भव से दूसरे भव में जाता है। उस स्वल्पकाल को अन्तराल गति कहा जाता है। उस अन्तराल गति में प्राण नहीं होता, जीव नहीं होता, आत्मा होती है । मुक्तात्मा जीव नहीं है । सिद्धों को भाव प्राण की अपेक्षा से जीव कहा गया है । द्रव्य प्राण की दृष्टि से वे जीव नहीं हैं। I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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