Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 142
________________ १४० / जैन दर्शन के मूल सूत्र नियम बदल गया और दूसरा लागू हो गया । इसे विपत्ति आने वाली थी । किन्तु इसने इतना अच्छा आचरण किया कि विपत्ति बदल गई और इसने सौभाग्य का वरण कर लिया । यह नियमों का नियंत्रण, बदलना हमारे हाथ में है। इसलिए महावीर ने कहा कि प्रमत्त मत बनो । सतत जागरूक रहो। प्रमत्त है, उसे भय है । आज ऐसा लगता है कि सब कुछ है, सारी सम्पदा है, किन्तु नियम कब बदल जाए, क्या पता? जो प्रमादी है, उसके लिए हर क्षण खतरा उपस्थित हो सकता है । किन्तु जो अप्रमादी है उसे कहीं से भी भय नहीं होता । बुरी से बुरी होने वाली घटना, बुरी से बुरी होने वाली बात टल जाती है और नियम बदल जाता है । I इन सारे सन्दर्भों से हम फिर इस सिद्धान्त पर विचार करें कि हम स्वयं अपने भाग्य के कर्त्ता हैं, सुख-दुःख के कर्त्ता हैं और हम स्वयं अपने नियंता हैं । कोई दूसरा कर्त्ता नहीं है । कोई दूसरा नियंता नहीं है । केवल नियम है। नियम को समझकर चलें। अगर हम उन नियमों को जान लें कि किस नियम से सुख मिलता है, किससे दुःख होता है। आश्रव से दुःख होता है। आश्रव से सुख होता है, पाप का बन्ध होता है । जब शुभ आश्रव होता है, तब पुण्य का बन्ध होता है। अशुभ आश्रव होता है तो पाप का बन्ध होता है। ये नियम हैं। आश्रव का एक नियम है और इसका प्रतिपक्षी नियम है संवर । जब संवर होता है तब न दुःख होता है और न सुख होता है। वहां चैतन्य का विकास होता है। केवल जागरण होता है । बन्ध एक नियम । आश्रव एक नियम । पुण्य एक नियम । पाप एक नियम । संवर एक नियम और मोक्ष भी एक नियम । ये सारे नियम हैं । यह नियमों का सिद्धान्त जब समझ में आता है, तब व्यक्ति बहुत जागरूक बन जाता है। पुराने संस्कारों को कैसे क्षीण किया जाए, अच्छे संस्कारों का कैसे निर्माण किया जाए और कैसे बुरे संस्कारों को समाप्त किया जाएये सारे नियम प्रकट हो जाते हैं। यह एक पूरी नियमों की श्रृंखला है। जब आत्म-कर्तृत्व, अपना नियंत्रण - यह नियम समझ लिया जाता है तो उसके साथ सैकड़ों-सैकड़ों नियमों की एक पूरी श्रृंखला हमारे ध्यान में आ जाती है । व्यक्ति उन नियमों की श्रृंखला में अपने आपको संभाल ले, अपने आपको संवार ले, तो उसका कल्याण हो जाता है । I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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