Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 145
________________ जैन दर्शन को जीने का अर्थ है-सत्य को जीना / १४३ सज्ज्ञानं प्रथमो धर्मः -- 'आचारः प्रथमो धर्मः ' यह घोष बहुत प्रचलित है । जैन दर्शन का घोष इससे भिन्न है। भगवान महावीर ने कहा- 'पढमं नाणं तओ दया' - पहले ज्ञान फिर आचरण । आचार ज्ञान का सार है- 'नाणस्स सारं आयारो' । ज्ञान का अर्थ केवल तथ्यों और घटनाओं को जानना मात्र नहीं है । उसका अर्थ है - सम्यक् दर्शन की छत्रछाया में होने वाला ज्ञान । मिथ्यादर्शन के वलय में जो ज्ञान होता है, वह राग और द्वेष से प्रभावित होता है । इसलिए उस ज्ञान को अज्ञान माना जाता है। जैन शासन में ज्ञान उसी को माना गया है, जिससे पदार्थ के प्रति विराग और श्रेय के प्रति अनुराग उत्पन्न हो, जिससे मैत्री की चेतना जागे और समता की अनुभूति विकसमान बने । सम्यक् दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान संभव नहीं । सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् आचरण संभव नहीं । जैन दर्शन में सम्यक् दर्शन का स्थान पहला, सम्यक् ज्ञान का दूसरा और सम्यक् आचरण का तीसरा है । सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान में भेद की विवक्षा न करे तो यह घोष बनता है - 'सज्ज्ञानं प्रथमो धर्म:' । जनश्रुति और वास्तविकता जैन दर्शन कोरा क्रियावादी नहीं है और कोरा ज्ञानवादी भी नहीं है । वह ज्ञान और क्रिया- दोनों की युति को स्वीकार करता है। ज्ञान के बिना क्रिया और क्रिया के बिना ज्ञान- दोनों अधूरे हैं। साधना की परिपूर्णता इन दोनों के समन्वय से ही आती है। अहिंसा एक क्रिया है, एक आचरण है। जैन दर्शन अहिंसा पर अधिक बल देता है - यह एक जनश्रुति बन गई। वास्तविकता कुछ और है। जैन दर्शन का बल किसी पर नहीं है। वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी दर्शन है। इसलिए किसी एक अंश पर उसका बल हो नहीं सकता । उसका बल जितना ज्ञान पर है उतना ही आचार पर है, जितना आचार पर है उतना ही ज्ञान पर है। दोनों पहलू संतुलित हैं । तराजू का कोई भी पलड़ा हल्का और भारी नहीं है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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