Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 147
________________ जैन दर्शन में राष्ट्रीय एकता के तत्त्व भावात्मक एकता का पहला सूत्र प्रत्येक व्यक्ति अपूर्ण है। अपूर्णता का अर्थ विकास की अपूर्णता है। क्षमता है पर वह विकसित नहीं है। अपूर्णता से पूर्णता की दिशा में प्रस्थान करने का माध्यम है-धर्म। जैन दर्शन में वही धर्म उत्कृष्ट मंगल माना जाता है। अहिंसा, संयम और तप-ये तीन उसके रूप हैं । असंयम और सुखवाद या सुविधावाद-ये समाज में विघटन पैदा करने वाले तत्त्व हैं। इनकी साधना के लिए अनेकान्त दृष्टि का विकास आवश्यक है। भावात्मक एकता का पहला सूत्र है-सम्यक् दर्शन। अनेकान्त सम्यक् दर्शन है। सापेक्षता और समन्वय के रूप में उसका व्यवहार किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति में अर्थ-संग्रह की वृत्ति होती है। वह अधिकतम अर्थ का संग्रह चाहता है। यह संग्रह की मनोवृत्ति भी संघर्ष या टकराव पैदा करती है। निम्नवर्ग के लोगों में उच्चवर्ग के प्रति सद्भावना नहीं है। कारण साफ है-उच्चवर्ग निम्नवर्ग से निरपेक्ष होकर जीना चाहता है । वह अपनी सुख-सुविधा को ही बढ़ाना चाहता है। इस वैयक्तिक सुविधावादी मनोवृत्ति ने समाज और राष्ट्र को तोड़ने में अहं भूमिका निभायी है। एकात्मकता का सूत्र अनेकान्त का पहला तत्त्व है-सापेक्षता । प्रत्येक विचार सापेक्ष होता है। एक व्यक्ति अपने विचार को सही मानता है, यह ठीक हो सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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