Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 160
________________ १५८ / जैन दर्शन के मूल सूत्र का युग उसी चिन्तन के आधार पर चल रहा है। मैं अतिशयोक्ति करना नहीं चाहता, किन्तु जब हम चिन्तन के क्षणों में जाते हैं तो ऐसा लगता है कि महावीर के जो कार्य, व्यवहार और चिन्तन थे, वे आज के युगचिन्तन बन गए। आज के युग की जो चिन्तन धाराएं हैं, वे एक प्रकार से महावीर की प्रतिध्वनियां कर रही हैं, प्रतिगुंजन हो रहा है। ऐसा लगता है कि ढाई हजार वर्ष पहले महावीर की बात को समाज नहीं पचा पाया, समझ नहीं पाया। कोई भी अच्छा चिन्तन होता है, वह व्यर्थ नहीं जाता। किन्तु आकाश में जमा हो जाता है। हजारों हजार वर्ष की अवधि में कोई समय ऐसा आता है, उस चिन्तन को पकडने वाला कोई मस्तिष्क बन जाता है और उसे आकार दे देता है। वर्तमान का युग-चिन्तन, वर्तमान का युगबोध महावीर के चिन्तन और महावीर की बोधि की प्रतिध्वनि कर रहा है, प्रतिक्रिया जता रहा है। जैन धर्म-दर्शन का चौथा विशिष्ट सिद्धान्त है अनेकान्त। आज लोकतंत्र का युग है। लोकतंत्र का अर्थ है कि एक व्यक्ति को कभी प्रधानता मिलती है तो कभी उसे गौणता मिल जाती है। एक व्यक्ति राष्ट्रपति बनता है, अवधि समाप्त होने पर सामान्य नागरिक बन जाता है। सामान्य नागरिक होता है, वह राष्ट्रपति बन जाता है। सामान्य नागरिक होता है, प्रधानमन्त्री बन जाता है और प्रधानमन्त्री फिर सामान्य नागरिक बन जाता है। आपने देखा है, बिलौना होता है । बिलौना के बाद मक्खन निकलता है। बिलौना कैसे होता है? अनेकान्त का सिद्धान्त है बिलौना करना। जब बिलौना होता है, मथनी चलती है तो दोनों हाथ एक स्थान पर नहीं रहते। एक हाथ आगे जाता है दूसरा हाथ पीछे जाता है, फिर पीछे वाला आगे जाता है और आगे वाला पीछे चला आता है। जब इस प्रकार बिलौना होता है, तब मक्खन निकलता है। एक आगे आता है और दूसरा पीछे चला जाता है। अगर दोनों हाथ बराबर रहेंगे तो क्या कभी मक्खन निकलेगा? कभी नहीं निकल सकता। यह है अनेकान्त । जब आप चलते हैं तो चलने का क्रम क्या है? एक पैर आगे आएगा, दूसरा पैर पीछे रहेगा। फिर पीछे वाला आगे आएगा और आगे वाला पीछे चला जाएगा। अगर दोनों पैरों का आग्रह हो जाए कि हम दोनों बराबर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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