Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 144
________________ १४२ / जैन दर्शन के मूल सूत्र दो नहीं हैं सत्य और ऋजुता पूछा किसी ने भगवान महावीर सेभंते ! धर्म कहां ठहरता है? भगवान-शुद्ध आत्मा में। भंते ! शुद्ध आत्मा की पहचान क्या है? भगवान-ऋजुता, सरलता। भंते! ऋजुता क्या है? भगवान-जो सत्य है। भंते ! सत्य क्या है? भगवान-जो ऋजुता है। ऋजुता और सत्य को पृथक नहीं किया जा सकता। सत्य के चार प्रकार हैं* शरीर की ऋजुता * भाव की ऋजुता * भाषा की ऋजुता * अविसंवादी प्रवत्ति-कथनी-करनी की समानता। व्रत का स्थान दूसरा है कुछ चिंतक कहते हैं-जैन धर्म में अहिंसा पर अधिक बल दिया गया है, सत्य पर कोई बल नहीं है। यह चिंतन एक जैन व्यक्ति की वर्तमान जीवन-प्रणाली से उपज सकता है। जैन दर्शन और उसकी वास्तविक जीवन-प्रणाली से यह भ्रांति नहीं उपज सकती। अहिंसा एक व्रत है। महावीर के दर्शन में व्रत का स्थान दूसरा है। सम्यक् दर्शन या सम्यक्त्व का स्थान पहला है। जो सम्यक् है वह सत्य है और जो सत्य है, वह सम्यक है। सत्य या सम्यक् दर्शन की प्राप्ति के बिना अहिंसा की आराधना यथार्थ रूप में कब संभव बनती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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