Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 122
________________ १२० / जैन दर्शन के मूल सूत्र कर्म करने वाली आत्मा अन्य है और शुद्धात्मा एक अलग तत्त्व है। इस मंतव्य की स्वीकृति के पीछे भी एक दार्शनिक कठिनाई रही हैयदि अनेक आत्माओं का अस्तित्व माना जाए तो आत्मा को शरीर व्यापी मानना पड़ेगा। शरीर व्यापी होने का अर्थ है अनित्यता को स्वीकार करना। कोई भी सीमित वस्तु नित्य नहीं हो सकती, यह एक सिद्धान्त है। असीम शाश्वत हो सकता है, ससीम शाश्वत नहीं हो सकता। इससे परमात्मा की अनित्यता फलित होती है। इस समस्या से उबरने के लिए वेदान्त ने एकात्मवाद का प्ररूपण किया। नानात्मवाद, प्रत्यग आत्मा की व्याख्या के लिए जीवात्मा को स्वीकृति दी। एकात्मवाद की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ही बिम्ब-प्रतिबिम्बवाद वेदान्त आदि दर्शनों द्वारा कल्पित हुआ है। जैन दर्शन में प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता का अभ्युपगम है, इसीलिए उसमें ये सब दार्शनिक उलझनें नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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