Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 132
________________ १३० / जैन दर्शन के मूल सूत्र लोभ, कपट, द्वेष आदि कम हो जाते हैं । भय भी कम होता जाता है। ईर्ष्या होती है पदार्थ की लोलुपता के कारण। जब पदार्थ की लालसा मिट जाती है, तब ईर्ष्या का भाव नहीं जागता । जब ये सारे दोष कम हो जाते हैं, तब पांचवां समाधान प्राप्त होता है और वह है चंचलता का अभाव । मन, वाणी और शरीर की चंचलता कम हो जाती है । जब चंचलता कम होती है, तब आदमी अपने आपको देखने में समर्थ होता है । यह यथार्थ में समाधान है। अपने आपको देखना ही ध्यान है । संक्षेप में कहें तो समस्या है आस्रव और समाधान है संवर। कुछ विस्तार में कहें तो समस्याएं पांच हैं, आस्रव पांच हैं और समाधान भी पांच हैं, संवर भी पांच हैं। जैन आचार्यों ने सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र - इस रत्नत्रयी को भी समाधान माना है। यही मुक्ति का मार्ग है । पहले जानो, फिर जानी हुई बात पर श्रद्धा करो, आस्था का अनुबंध करो और फिर उसका आचरण करो । यह भी समाधान का एक मार्ग है। आदमी जानना नहीं चाहता। वह पढ़ता है, पर जानता नहीं । जानने का तात्पर्य है अपने आपको जानना । जो अपने आपको जानता है, वह सबको जान लेता है। जो अपने आपको नहीं जानता, वह बहुत जानकर भी थोड़ा जान पाता है। जो अपने आपको जानता है, वह थोड़ा जानकर भी बहुत जान लेता है । यह अध्ययन की सरल पद्धति है । यह अन्तर्दृष्टि को जगाने की पद्धति है । जब ज्ञान आत्मगत हो जाता है, तब बाहरी ज्ञान को पढ़ने की इतनी जरूरत नहीं होती। एक व्यक्ति पढ़कर जानता है । पर अन्तर्दृष्टि से जितना जाना जाता है, उतना सौ वर्ष तक पढ़कर भी नहीं जाना जा सकता । ज्ञान की असीम शक्ति हमारे भीतर है। जब उसका द्वार खुल जाता है, तब उसमें सब कुछ समाविष्ट हो जाता है । दूसरा है सम्यक् दर्शन । दर्शन का अर्थ है अनुभव करना । बहुत बड़ा अन्तर है जानने में और अनुभव करने में । एक आदमी ने एक बात पढ़कर जान ली । परन्तु जब तक वह उसका स्वयं अनुभव नहीं कर लेता, तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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