Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 107
________________ जीव : स्वरूप और लक्षण / १०५ अनुभव। ३. सामर्थ्यहीनता का अनुभव। ४. सुख-दु:ख का अनुभव। ५. उच्चता-नीचता का अनुभव । ५. शुभ-अशुभ का अनुभव । ७. जीवनमृत्यु का अनुभव। क्षायोपशमिक व्यक्तित्व के लक्षण हैं: १. जानने-देखने की क्षमता का अनुभव। २. अमूर्छा का अनुभव-आवेग-शून्यता, अभय, कामवासना-मुक्ति और आनन्द का अनुभव। ३. सामर्थ्य का अनुभव। ४. संवेदन-मुक्ति का अनुभव। व्यक्तित्व की ये दोनों परतें हर व्यक्ति के मस्तिष्क में होती हैं। अपने चैतन्यमय स्वरूप के प्रति जागरूकता के क्षण में क्षायोपशमिक व्यक्तित्व की परत सक्रिय होती है। मूर्छा के क्षण में औदयिक व्यक्तित्व की परत सक्रिय होती है। इन दोनों के प्रभाव से दोहरा व्यक्तित्व बनता है । यह जीव का वास्तविक स्वरूप नहीं है, किन्तु अनावरण की अवस्था के विकास से पूर्व उसका यही रूप उपलब्ध होता है। चैतन्य का अनावरण होने पर यह दोहरा व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है, तभी उसका वास्तविक स्वरूप प्रकट होता है। इसे क्षायिक व्यक्तित्व कहते हैं। सशरीर और अशरीर जीव संसार में रहता है। वह शरीर में रहता है और उसका फैलाव भी शरीर जितना ही होता है, इसलिए उसे (जीव को) देह-परिमाण कहा गया है। वह न तो शरीर के किसी हिस्से में केन्द्रित है और न पूरे लोक में व्याप्त है, किन्तु वह पूरे शरीर (नाड़ी-संस्थान) में व्याप्त है। मुक्ति के प्रथम क्षण में वह अशरीर हो जाता है। उस अवस्था में भी वह पूरे लोक में व्याप्त नहीं होता, किन्तु जिस शरीर से मुक्त होता है उसी के त्रिभागहीन क्षेत्र में वह व्याप्त हो जाता है। ___यह अशरीर अवस्था जीव की सर्वथा पुद्गलमुक्त या अचैतन्यवियुक्त अवस्था है। इस अवस्था के उपलब्ध होने पर जीव फिर कभी पुद्गल से युक्त नहीं होता, उससे प्रभावित होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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