Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 116
________________ ११४ / जैन दर्शन के मूल सूत्र इस सृष्टि में जीव और पुद्गल के कुछ गुण समान हैं। यही कारण है कि जीव पुद्गल को और पुद्गल जीव को प्रभावित करता है। जीव और पुद्गल के सम्बन्ध का भी यह एक आधार है। लेश्या ध्यान में रंगों का प्रभाव होता है। हमारे जीव में भी रंग हैं। चैतन्य केन्द्रों के रंग भी होते हैं। आत्म प्रदेशों के साथ भी रंग घुले मिले हैं और वे रंग हमें प्रभावित करते हैं। जीव और पुद्गल में अभेद भी है, भेद भी है और उनका एक दूसरे पर प्रभाव भी है। अरूप जीव भी सरूप का निर्माण नहीं कर सकता । अकर्मा, अरागी, अवेदी, अशरीरी जीव सर्वथा अमूर्त होता है। जीव की एक अवस्था है-सरूपावस्था और दूसरी है-अरूपावस्था। शरीरधारी जीव सरूपावस्था में रहता है और शरीरमुक्त जीव अरूपावस्था में रहता है। जीव सरूप भी है, अरूप भी है। अमूर्त जीव मूर्त शरीर में कैसे रहता है? मूर्त और अमूर्त में सम्बन्ध कैसे हैं? ये प्रश्न इन दो अवस्थाओं के विवेचन से स्वतः समाहित हो जाते हैं। सरूप अरूप बन सकता है। सरूप अरूप कैसे बनता है? यह एक अलग प्रश्न है। सरूप से अरूप होने की एक प्रक्रिया है वह है, संवर और निर्जरा की प्रक्रिया। . मनोविज्ञान के सामने भी यह जटिल समस्या है कि शरीर और मन दोनों भिन्न हैं । इनमें सम्बन्ध कैसे होता है? ये एक दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं? इस समस्या का समाधान तब तक नहीं होगा जब तक हम दोनों को एकान्ततः भिन्न या अभिन्न मानेंगे। इसका समाधान अनेकान्त के द्वारा पाया जा सकता है। अनेकान्त का समाधान सूत्र है-जीव मूर्तामूर्त है। स्वरूप की दृष्टि से वह अमूर्त है पर बद्धावस्था में वह वस्तुतः मूर्त ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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