Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 72
________________ ७० / जैन दर्शन के मूल सूत्र नहीं है। चेतना विभाजक गुण है। वह चेतन को अचेतन से पृथक् करती है। 'सामान्य' संयोजक गुण है । वह सब द्रव्यों में समान रूप से व्याप्त रहता है। इसलिए वह एकता का अन्तिम बिन्दु है। उस पर पूर्ण अद्वैत का सिद्धान्त फलित होता है। अतः प्रत्ययवादी दृष्टिकोण भी सत्यांश है। 'है' (सत्) परम अस्तित्व है। अमुक है'--यह अपर अस्तित्व है। परम अस्तित्व में कोई विभाजन नहीं है, न द्रव्य और न पर्याय। अपर अस्तित्व में विभाजन होता है। उसकी सीमा में द्रव्य है और उसके अनेक प्रकार हैं। पर्याय हैं और वे अनन्त हैं । द्रव्य में दो प्रकार के गुण समन्वित होते हैं-सामान्य और विशेष। ये एक-दूसरे से कभी पृथक् नहीं होते। सामान्यशून्य विशेष और विशेषशून्य सामान्य कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। सामान्य गुण द्रव्य के अस्तित्व को बनाए रखता है किन्तु उसकी विशेषता का अपहरण नहीं करता। विशेष गुण द्रव्य की स्वतन्त्रता को बनाए रखता है किन्तु उसके अस्तित्व में कोई भी बाधा उपस्थित नहीं करता। ___ जब हम सामान्य दर्शन की धारा में होते हैं तब परम अस्तित्व को देखते हैं और जब हम विशेष दर्शन की धारा में होते हैं तब हम अपर अस्तित्व को देखते हैं। यह परम अस्तित्व और अपर अस्तित्व का विभाजन नहीं किन्तु हमारे दर्शन का विभाजन है। हम एक साथ दोनों को नहीं देख सकते इसलिए जगत को कभी सामान्य के कोण से देखते हैं और कभी विशेष के कोण से। सामान्य के कोण से देखने पर परम अस्तित्व का सत्यांश उपलब्ध होता है और विशेष के कोण से देखने पर अपर अस्तित्व का सत्यांश उपलब्ध होता है। इस सापेक्ष व्याख्या में न प्रत्ययवाद वस्तुवाद का विरोधी है और न वस्तुवाद प्रत्ययवाद का। प्रत्ययवाद का ध्येय है-केवल चैतन्य की वास्तविक सत्ता स्थापित करना और वस्तुवाद का ध्येय है-चैतन्य से वस्तु की स्वतन्त्रता स्थापित करना। ज्ञेय ज्ञाता से स्वतन्त्र है। यदि वह ज्ञाता से स्वतन्त्र न हो तो ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध नहीं हो सकता। सम्बन्ध दो में स्थापित होता है। एक में कोई सम्बन्ध नहीं होता। ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता के ज्ञान पर निर्भर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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