Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 65
________________ नियति और पुरुषार्थ / ६३ पद- 'णमो अरहंताणं' हमारा आदर्श है । अशरीरी-मुक्त ईश्वर सशरीरी के लिए आदर्श नहीं हो सकता। सिद्ध, मुक्त, परमात्मा और ईश्वर हमारे लिए आदर्श नहीं हो सकते। हमारे लिए आदर्श है 'अर्हत्' जो शरीरधारी है। शरीरधारी होने पर भी वे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द-इस अनन्त चतुष्टयी से अन्वित हैं । यह है हमारा आदर्श। इसमें पुरुषार्थ के लिए बहुत अवकाश है। अल्पज्ञान वाले आदमी को अनन्त ज्ञान तक पहुंचना है, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति तथा अनन्त आनन्द तक पहुंचना है। कितना बड़ा आदर्श! चलते चलो, चलते चलो। कहीं अवरोध नहीं है। अर्हत् है आदर्श। इस आदर्श तक पहुंचकर आदमी स्वयं परमात्मा बन जाता है, सिद्ध बन जाता है। यह है अन्तिम परिणति, अन्तिम निष्पत्ति। प्रश्न होता है, कैसे बने? बनने का मार्ग है आचार्य। आचार्य आचार का प्रतीक है । आचार के द्वारा हम आदर्श तक पहुंच सकते हैं। जैनदर्शन केवल आचार को एकांगी मान्यता नहीं देता। वह आचार और ज्ञान-दोनों के समन्वय को मानता है। उपाध्याय ज्ञान का प्रतीक है। तात्पर्यार्थ है कि आचार और ज्ञान-ये दो मार्ग हैं। साधु साधना का प्रतीक है। एक साधक व्यक्ति साधना के द्वारा आचार और ज्ञान की आराधना कर अर्हत् बनता है और अर्हत् बनकर शरीरमुक्त बन जाता है। यह महामंत्र आदर्श भी है और आदर्श तक पहुंचने की पद्धति भी है। जैन-दर्शन में आदर्शवाद भी है और भक्तिवाद भी। जहां भक्ति नहीं होती, समर्पण नहीं होता, तादात्म्य नहीं होता, वह धर्म सूखा धर्म होता है। उसमें चिकनापन नहीं होता। जैन--धर्म में भक्ति के लिए पूरा अवकाश है, उपासना के लिए पूरा अवकाश है, इसलिए वह सूखा नहीं है। उपासना यानी अर्हत् की उपासना! ____ हमारे सामने आदर्श है और भक्ति है। इसीलिए भक्ति करने वाला बड़ी तन्मयता के साथ उच्चारण करता है * अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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