Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 47
________________ जगत और ईश्वर हम जिस जगत में जी रहे हैं, वह जगत आज भी रहस्य बना हुआ है। रहस्य को अनावृत करने के लिए अनेक दार्शनिकों ने अनेक प्रकार के चिन्तन किए और अपने-अपने चिन्तन प्रस्तुत किए। जैन दर्शन ने अपना चिन्तन प्रस्तुत किया-जगत के विषय में भी और हमारे अस्तित्व के विषय में भी। वे दोनों विषय जानने योग्य हैं तथा तार्किक और दार्शनिक दृष्टि से बहुत समृद्ध हैं। जहां जगत का प्रश्न है,वहां ईश्वर का प्रश्न अपने आप जुड़ जाता है और इसलिए जुड़ता है कि जगत कब बना, किसने बनाया और कैसे बनाया? ये तीन प्रश्न जगत के बारे में प्रस्तुत किए। इस विषय में जैन दर्शन का चिन्तन रहा कि यह जगत अकृत्रिम है। किसी ने बनाया नहीं। कभी बना नहीं। कैसे बना, इसका प्रश्न ही समाप्त। यह अनादिकाल से है। न इसका आदि है और न इसका अन्त। बात समाप्त हो जाती है। यह चिन्तन इसलिए प्रस्तुत किया गया कि जगत को कृत मानें तो बहुत सारी समस्याएं पैदा होती हैं। ऐसे जटिल प्रश्न पैदा होते हैं, जिनका समाधान कोई दीखता नहीं है। यदि किसी ने जगत को बनाया तो जगत अलग हो गया और बनाने वाला जगत से अलग हो गया। जगत अलग, कर्ता अलग। अलग आया कहां से? वह जगत में है या अजगत में? अगर बनाने वाला जगत में नहीं है तो फिर दो जगत बन गए। एक कोई वैसा जगत है, जिसमें यह जगत नहीं है। बहुत बड़ी समस्या पैदा हो जाती है। फिर ईश्वर की प्रकृति और जगत की प्रकृति का मेल भी नहीं है। ईश्वर तो है चेतन और जगत में अचेतन भी है। दोनों की प्रकृति में मेल नहीं है। फिर अचेतन आया कहां से? जगत आया कहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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