Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 43
________________ दार्शनिक दृष्टिकोण / ४१ राजा ने देखा और वह मुग्ध हो गया। उसने कहा- कितना बढ़िया चित्र है। चित्रकार ने बड़ी निपुणता के साथ चित्र बनाया था। उसने राजा को शिकार खेलते हुए दिखाया था। हाथ में धनुष । प्रत्यंचा तनी हुई । मुट्ठी बंधी हुई और उसकी ओट में आंख आ गयी। न तो कानापन दिखायी देता है और न ही झूठी बात। दोनों नहीं। राजा ने कहा-यह मुझे पसन्द है, सबसे बढ़िया है और इसको प्रथम पुरस्कार दिया जाना चाहिए। वह पुरस्कृत हो गया, जिसने सापेक्षता का प्रयोग किया। नग्न सत्य भी काम का नहीं होता, असत्य भी काम का नहीं होता। सापेक्षता से हमारा व्यवहार चलता है, उससे सचाई का पता चलता है। यह सापेक्ष दृष्टिकोण है कि द्रव्य पर्याय से सापेक्ष और पर्याय द्रव्य से सापेक्ष। दोनों का जहां योग होता है, वह सापेक्षता है। द्रव्य के बिना पर्याय का निरूपण करना और पर्याय के बिना द्रव्य का प्रतिपादन करना अयथार्थ है। द्रव्य और पर्याय यानी मूल तत्त्व और परिवर्तन दोनों को एक साथ में दिखा देना, यह सापेक्षता है। जैन दर्शन ने सापेक्ष दृष्टि का विकास किया। यह दृष्टिकोण बहुत महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण है। इसके आधार पर प्रत्येक द्रव्य को जुड़ा हुआ जाना जा सकता है। हम किसी एक बात को जानें। यह एक कपड़ा है। एक कपड़े को जानना है। क्या आप इस एक कपड़े को जान सकते हैं? नहीं जान सकते। यदि आपमें सापेक्षदृष्टि का विकास नहीं है तो एक कपड़े को नहीं जान सकते। एक कपड़े को जानने के लिए आपको क्याक्या जानना पड़ेगा कि सबसे पहले कहां बना, इसे जानना होगा। किस समय, काल को जानना होगा। किस व्यक्ति ने बनाया, यह जानना होगा। किस फैक्टरी में बना, यह जानना होगा। जिस आदमी ने बनाया, वह कहां से आया? रुई कहां से आई, रुई किसने पैदा की? किस खेत में पैदा हुई? एक-एक को जानते चलें। सारे संसार को जानकर ही आप इस कपड़े को जान सकते हैं। सारे संसार को जाने बिना इस एक कपड़े को नहीं जाना जा सकता। एक आदमी को जानना, एक कपड़े को जानना, किसी एक चीज को जानना, इसका अभिप्राय है कि सारे संसार को जानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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