Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 35
________________ भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान / ३३ सबसे आगे हैं। जैन दर्शन ने अभेद और भेद में अविरोध की स्थापना की। उसके अनुसार अभेद और भेद सापेक्ष हैं। उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता । अभेद और भेद- दोनों एक ही पदार्थ को देखने की दो दृष्टियां हैं । सामान्य की दृष्टि से देखने पर अभेद ही अभेद फलित होता हैं और विशेष की दृष्टि से देखने पर भेद ही भेद फलित होता है। दोनों दृष्टियां संयुक्त होती हैं तब सत्य का दर्शन होता है। सांख्य-सम्मत आत्मा कूटस्थ है और बौद्ध-सम्मत आत्मा क्षणिक है। अपरिणामी आत्मा का विकास जितना सांख्य ने किया उतना अन्य दृष्टि में उपलब्ध नहीं है। परिणामी चेतना के प्रतिपादन में बौद्धों ने बहुत सफलता प्राप्त की। जैन-दर्शन ने आत्मा को परिणामी-नित्य स्थापित कर दोनों दृष्टियों को समन्वित कर दिया। जैन दर्शन ने यह घोषणा की-कोई भी दृष्टि असत्य नहीं है, प्रत्येक दृष्टि सत्यांश है, किन्तु दूसरी दृष्टियों से सापेक्ष हुए बिना वह पूर्ण सत्य नहीं बनती। इस घोषणा ने दार्शनिक मूल्यांकन का सारा दृष्टिकोण ही बदल दिया। आश्चर्य है कि दार्शनिकों ने इस घोषणा पर ध्यान नहीं दिया। यदि इस पर ध्यान दिया जाता तो दर्शनों के परस्पर खंडन-मंडन या जय-पराजय की बात नहीं होती। जो शक्ति परस्पर खंडन-मंडन में लगी वह विभिन्न दृष्टियों के मूल्यांकन में लगती और दर्शन के व्यवस्थित विकास की परम्परा का सूत्रपात हो जाता। जागतिक समस्याओं को सुलझाने के प्रयत्न में प्रत्येक दर्शन भागीदार है। कोई दर्शन किसी एक समस्या को सुलझाने में सफल हुआ है और कोई दूसरी समस्या को सलझाने में। यदि सभी दृष्टियों में सत्यांश की अनुभूति हो तो मूल्यांकन का दृष्टिकोण स्वस्थ होगा। यदि एक दृष्टि को पूर्ण सत्य मानकर दूसरी दृष्टियों का मूल्यांकन किया जाए तो दृष्टिकोण स्वस्थ नहीं होगा। जैन दर्शन ने अनेकान्त दर्शन की स्थापना कर सभी दर्शनों को सापेक्ष दृष्टि से देखा और सभी दर्शनों के मध्य वह समन्वय-सेतु बन गया। अहिंसा और मैत्री के विकास का आधार यह समन्वयपूर्ण दृष्टिकोण ही है। हिंसा की जड़ विचारों की विप्रतिपत्ति है। वैचारिक असमन्वय से मानसिक उत्तेजना बढ़ती है और वह फिर वाचिक एवं कायिक हिंसा के रूप में अभिव्यक्त होती है। शरीर जड़ है, वाणी भी जड़ है। जड़ में हिंसा-अहिंसा के भाव नहीं होते। इनकी उद्भवभूमि मानसिक चेतना है। उसकी भूमिकाएं अनन्त हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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