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जैनदर्शन :वैज्ञानिक दृष्टिसे
13 दूसरी ओर श्रूत केवली चतुर्दशपूर्वधर आचार्य श्री भद्रबाहु द्वारा संकलित कल्पसूत्र' में पांच प्रकार के सूक्ष्म अंडे बताये हैं । _ 'से किं तं अंड सुहमे ? अंड सुहमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा उदंसंडे, उक्कलियंडे, पिपीली अंडे, हलिअंडे, हल्लोहलि अंडे ।
- कल्पसूत्र, सामाचारी, __ वे सूक्ष्म अंड कौन-से हैं ? वे सूक्ष्म अंड पाँच प्रकार के हैं : 1. उदंशाण्ड-मधुमक्खी, मत्कुण आदि के; 2. उत्कलिकाण्ड-मकड़ी के अंडे; 3. पिपिलिकाण्ड - चींटी आदि के अंडे; 4. हलिकाण्ड-छिपकली आदि के अंडे;5. हल्लोहलिकाण्ड-गिरगिट आदि के अंडे ।
एक ओर वाचक उमास्वाति का वचन है, दूसरी ओर श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु का वचन है । दोनों के वचन परस्पर-विरूद्ध लगते हैं; किन्तु हमें ख्याल रखना है कि दोनों वचन नय-सापेक्ष हैं; अतः निश्चय नय की दृष्टि से विचार करने पर वाचक उमास्वाति का वचन सही प्रतीत होता है और व्यवहार नय की दृष्टि से आचार्य श्रीभद्रबाहु का; क्योंकि चींटी, मक्खी, मत्कुण (खटमल) इत्यादि संमूर्छिम जन्तु होने की वजह से नपुंसक होने पर भी वे अपने शरीर में-से ऐसे पदार्थ निकालते हैं कि जिन्हें लोक में आमतौर से अंडे के नाम से पुकारा जाता है । अब केवल प्रश्र यही रहा है कि यदि वे सब नपुंसक हैं तो उनमें मैथुन की प्रक्रिया नर-मादा के संयोग की प्रक्रिया-क्यों होती हैं ?
सर्व जीवों में व्यक्त या अव्यक्त रूप में निम्न चार संज्ञाएँ होती हैं : 1. आहार; 2. भय; 3. मैथुन; 4. परिग्रह । शास्त्रों में कहीं-कहीं दस संज्ञाएँ भी बतायी गयी हैं जिनमें इन चारों का समावेश हो जाता है; अत: जीव-मात्र में, चाहे वह पुल्लिंग हो या स्त्रीलिंग या नंपुसक, मैथुन की संज्ञा होगी ही, अतः संसार के सभी जीवों में मैथुन की क्रिया होती है; किन्तु जैसे देवयोनि और नारक योनि में यही प्रक्रिया प्रजनन का कारण नहीं बनती है, वैसे ही एकेन्द्रिय से ले कर चतुन्द्रिय तक सभी जीवों में, मैथुन की क्रिया होने पर भी वह प्रजनन (रिप्रोडक्षन) का कारण नहीं बनती।
कर्म-ग्रन्थ, कर्म-प्रकृति इत्यादि ग्रन्थों के अनुसार पुरुष वेद तृण की अग्नि के समान है, उसे तुरन्त ही काम-तृप्ति हो जाती है; स्त्री.वेद राख-से-ढंकी अग्नि के समान है, उसे कामतृप्ति होने में काफ़ी देर लगती हैं; जबकि नपुंसक वेद महानगर की अग्नि के समान है, जिसे कभी काम-तृप्ति नहीं होती; अत: नपुंसक लिंग वाले जीवों में मैथुन की संज्ञा सबसे अधिक सक्रिय होती है; और कभी-कभी तो यह अतृप्ति ही उसकी मृत्यु का कारण बनती है; जैसे-मधुमक्खी ।
'मनुस्मृति' मैं कहा है 'स्वेदजाः कृमिदंशाद्याः' अर्थात् द्वीन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय प्राणी अपने-अपने मल-मूत्र-स्वेद इत्यादि में उत्पन्न होते हैं; अतः हम उनके द्वारा उत्सर्जित पदार्थों को ही अंडा मानते है और यही हमारा भ्रम होता है ।
हाल में अहमदाबाद से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'संदेश' की (8-7-1987) की 'ज्ञान-विज्ञान' पूर्ति में छिपकली (लिझार्ड) के बारे में बताया गया है कि 'व्हिप टैल लिझार्ड',