Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 133
________________ 34 Jainism : Through Science space-point relative to its surrounding points is the fundamental aspect incorporated in the design of the universal space and from this basic phenomenon of 'changing positions or space-points' arises the very 'concept of time', (Beyond Matter; p. 87; P. Tewari) (किसी भी अवकाशी बिन्दु की उसके आस-पास के अन्य अवकाशी बिन्दुओं के सन्दर्भ में होने वाली गति ही, लोकाकाश (Universal Space) की संरचना को समझाने के लिए स्वीकृत मूलभूत दृष्टिकोण है और (पदार्थ की) स्थिति या अवकाशी बिन्दुओं में होने वाले परिवर्तन की इसी घटना से समय की अवधारणा या विभावना पैदा हुई है अर्थात् समय ओर कुछ नहीं है, वरन् द्रव्य के अवस्थान्तर (पर्यायान्तर) या दो अवकाशी बिन्दुओं के बीच का अन्तर काल वस्तुतः द्रव्य है या नहीं अर्थात् काल भौतिक वास्तविकता है या नहीं, इस संबन्ध में आधुनिक भौतिकी कहती है कि - Time is real since space and its motion are real. Time is absolute since space is absolute. (Beyond Matter, p. 88) (समय वास्तविक है, क्योंकि अवकाश और अवकाश की गति (पुद्गल-परमाणु की अवकाश में गति, वास्तविक है । समय निरपेक्ष है क्योंकि अवकाश (पुद्गल द्रव्य) निरपेक्ष है।) जैन दार्शनिक परम्परा में संपूर्ण आकाश को एक अखण्ड और निष्क्रिय द्रव्य माना गया है । (आऽऽकाशादेक द्रव्याणि ॥5॥निष्क्रियाणि च ॥6॥ तत्त्वार्थसूत्र; अध्याय-5) यहाँ अवकाश की गति के स्थान पर अवकाश में स्थित पुद्गल द्रव्य, या परमाणु की गति ली गयी है । यद्यपि अवकाश और पुद्गल द्रव्य भिन्न-भिन्न एवं निरपेक्ष है; तथापि अवकाश निष्क्रिय है, अत: जो परिवर्तन होता है वह केवल पुद्गल द्रव्य के विविध स्वरूप में ही होता है । इसी कारण से यहाँ अवकाश के साथ-साथ पुद्गल द्रव्य भी लिया गया है । काल की वास्तविक समझ देते हुए आधुनिक भौतिकी कहती है - The 'time' of our day to day experience emerges from the change in the positions of material bodies and also changes in their structure due to the inevitable field interactions causing assembly, decay and disintegration. (Beyond Matter, p.88) (जो काल आज हमारे अनुभव में है, वह अन्य कुछ न हो कर पौद्गलिक पदार्थों की स्थिति में होता परिवर्तन और साथ-साथ नये-नये पदार्थों का उत्पन्न होना, उसमें सड़न-गलन होना, उसका नाश होना इत्यादि के कारणभूत आन्तरिक विशिष्ट प्राकृतिक प्रक्रिया द्वारा पदार्थ के भौतिक स्वरूप में होने वाला परिवर्तन ही है ।) जिसे जैन दार्शनिक परिभाषा में पर्यायान्तर कहा जाता है। आगे उसका कथन है : .

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