Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 143
________________ 8.(अ) मुझें वे न विज्ञान-सम्मत लगे, न तर्क-संगत - जतनलाल रामपुरिया - हिम-शिखरों पर उजली बर्फ पिघलती है । वही निर्मल जलधारा नदी का रूप ले कर जब मैदानों से होती हुई समुद्र की ओर बढ़ती है, तब उसमें अनेक अशुद्धियाँ मिल जाती हैं । शैशव में बच्चा निश्छल-निर्दोष होता है, मगर समय का प्रवाह बड़े होने तक उसमें अनेक विकार भर देता है । आभूषण स्वर्णकार के हाथों-मिली अपनी चमक-दमक को अल्प समय में ही धूमिल कर लेते हैं । हर चीज अपने जन्म के समय जितनी सहज और निर्दोष होती है, कालान्तर में वह उतनी नहीं रह पाती; प्रकृति के उन नियमों में से एक है जिन्हें बदलने की कला मनुष्य के हाथों अब तक नहीं आयी । धर्म के क्षेत्र में यह नियम और भी अधिक ऊर्जा के साथ लागू होता है । धर्म सार्वजनिक चीज है, विभिन्न प्रदेशों से बहती हुई अथाह जलराशि है । स्वभावतः ही उसका प्रदूषित होना कहीं अधिक सहज है । धर्म के रूप में, उसका अभिन्न अंग बन कर पनप रहे ऐसे ही विकारों ने मेरे मन को बहुत बार उद्वेलित किया है । पाका पानी, मुँहपत्ती, ओघा, केशलोंचन, सुखे-हरे एवं ज़मीकंद के भेद, सुस्ता-असुस्ता आहार एवं कुछ अन्य त्याग-प्रत्याख्यानों का औचित्य समझने की मैंने बहुत कोशिश की, उनके पक्ष में हर कोण से सोचा मगर मुझे वे न विज्ञान-सम्मत लगे और न तर्कसंगत । इसके विपरीत ये सब मुझे उन लोगों द्वारा थोपी गयी चीजें लगी, जिन्होंने कुछ मौलिक देने की उमंग में धर्म-आदेशों के अक्षरों पर ध्यान दिया, मगर उनमें छिपी मूल भावनाओं को गौण कर दिया । जब भी इन विषयों पर मैंने किसी साधु या श्रावक से बात की तब मुझे कहा गया जैनधर्म के बारे में तुम्हारा ज्ञान अपूर्ण है । लगता है तुमने आगम नहीं पढ़े । यह बात शत-प्रतिशत सही है । इस बात से भी मैं असहमत नहीं कि पुस्तकें एवं विद्वानों का सान्निध्य ज्ञान अर्जन-वर्धन के महत्त्वपूर्ण साधन हैं; मगर यह भी उतना ही सच है कि ये ही दो ज्ञान के अन्तिम स्रोत नहीं हैं । नवजात शिशु किताब पढ़कर माँ का दूध पीना नहीं सीखता । मधुमक्खी को छत्ता बना लेने की कला शास्त्रों में लिखी नहीं मिलती । मकड़ी भी विद्वानों की गोष्ठी में भाग लिये बिना ही इतना जटिल जाला बुन लेती है । जीवन और ज्ञान वस्तुतः एक-दूसरे के पर्याय हैं । जहाँ जीवन है, प्राण है, वहाँ कुछ ज्ञान भी है । ज्ञान जीवन को उसके सृष्टा का प्रथम एवं अन्तिम उपहार है । पुस्तकें इसी नैसर्गिक, स्वयं-स्फूर्त, सहजात ज्ञान की उपज है और हर प्राणी में निहित प्रकृतिप्रदत्त यही संज्ञा इन पंक्तियों की प्रेरणा है, आधार भी । जो पुस्तकों-में-लिखी बातों को सम्पूर्ण मानते हैं एवं कुछ विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा-कहे

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