Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 150
________________ जैनदर्शन : वैज्ञानिक दृष्टिसे 51 या रोटी बनाते-बनाते अन्त में इसका आटा युक्त पानी, जिसमें आटा या अन्य खाद्य पदार्थ का स्वाद मालूम नहीं होता और यदि वह पानी तृषा समाप्त करने में समर्थ लगे तो अपने पात्र में ले लेते थे किन्तु श्रावकों के लिए तपश्चर्या के मध्य और सामान्यतया तीन बार उबला हुआ अचित्त जल ही लेने का विधान है । यह सब प्राचीन श्वेताम्बर परंपरा थी, वह भी शास्त्राधारित । वर्तमान में यही प्रथा जैन साधु-साध्वियों के कुछेक संप्रदायों-समुदायों-गच्छों-विभागों में आज भी जारी है; अतः उनके अनुयायी/भक्त श्रावक भी उन सबके लिए इसी तरह राख, या चूना डाल कर जल को अचित्त बनाते है, जो सर्वथा अनुचित है । इसी पद्धति से, प्रासुक जल लेने का मुख्य आशय या भावना नष्ट हो जाती है; अतः श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधु-साध्वी समुदाय में अब तीन बार उबला हुआ, अचित्त जल ही लिया जाता है उसे पाका-पका-पक्का पानी कहा जाता है, जबकि सभ्य-संस्कृत भाषा में अचित्त और शास्त्रीय परिभाषा में प्रासुक' कहा जाता है । श्रीजतनलालजी का कहना है किकुण्डों में एकत्रित वर्षा का मीठा पानी,कुओं का खारा पानी, नगर-निगम द्वारा वितरित क्लोरीन-युक्त पानी, शुद्ध किया गंगाजल, खनिज जल, गन्धक-युक्त कुण्डों का गर्म पानी आदि सब प्रकार के जल कोअचित्त करने के लिए क्या एक ही औषध राख,या चूना है ? उनकी मान्यता है कि सबके लिए भिन्न-भिन्न चीजें होनी चाहिये; किन्तु यह सब उनका भ्रम ही है। __शास्त्र में सचित्त पृथ्वी, जल इत्यादि के अचित्त होने की दो प्रकार की संभावनाएँ बतायी है । जब मिट्टी अपने से भिन्न प्रकार की मिट्टी से संपर्क में आती हैं, तब दोनों प्रकार की मिट्टी अचित्त हो जाती है । दोनों प्रकार की मिट्टी एक दूसरे के लिए स्वकायशस्त्र होती हैं और जब मिट्टीमें जल डाला जाता है, तब वह मिट्टी और जल दोनों परस्पर परकायशस्त्र बन कर एक-दूसरे को अचित्त बनाती है । यहाँ राख वनस्पतिकाय या पृथ्वीकाय का विकार है, जब कि चूना पृथ्वीकाय है अत: किसी भी प्रकार के जल को राख या चूना द्वारा अचित्त किया जा सकता है इसलिए ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए की एक ही चीज से सर्व प्रकार का जल कैसे अचित्त बनता है? ___ अचित्त पानी के उपयोग के बारे में अधिकतर श्रावकलोग पीने में अचित्त पानी लेते हैं और अन्य कार्यों में सचित्त जल का अधिक मात्रा में उपयोग करते हैं । उनसे इतना ही कहना पर्याप्त है कि यह हमारी विवेक-शक्ति की त्रुटि है । जल जलकायिक जीवों का समूह है; अत: जल का कम-से-कम उपयोग करना चाहिये, चाहे वह सचित्त हो, या अचित्त । वैसे तो श्रावकों के लिए सचित्त जल का पूर्ण निषेध नहीं हैं; अत: पीने में भी सचित्त जल की कोई बाधा नहीं है; किन्तु आरोग्य विज्ञान और भौतिकी के आधार पर अचित्त जल पीना सब के लिए लाभप्रद है । यही बात मैंने 'तीर्थंकर' के जनवरी-फरवरी 1990 के संयुक्त अंक में कही है; अत: यहाँ इसका पिष्ट-पेषण अनावश्यक है। तीसरी बात बताते हुए श्री जतनलालजी कहते हैं कि अचित्त पानी बहुत से परिग्रहों का कारण है; किन्तु उनकी यह बात एक कुतर्क है । अहिंसा के पालन, या जीवदया के लिए ज़रूरी उपकरण को परिग्रह कहना उचित नहीं हैं । आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने भी अपने 'अष्टक

Loading...

Page Navigation
1 ... 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162