Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 157
________________ 58 Jainism : Through Science ही शक्ति का संचार होता है । दोनों शक्ति के अच्छे स्रोत हैं ।15 गुड से कामवासना बढ़ती है।6. अत: त्यागी साधु या ब्रह्मचारियों को कच्चा गुड़ लेना नहीं चाहिये । आरोग्य की दृष्टि से गुड़ हृदय को ताकतवान बनाता है और हृदय से संबंधित भिन्न भिन्न रोगों को उत्पन्न होने नहीं देता 117 गुड़ का पानी (शक्कर का पानी) मूत्रपिंड (Kidney) व मूत्रोत्सर्जन तंत्र को साफ/स्वच्छ करता है 118 6. तले हुए पदार्थ : तेल में तले हुए और घी में तले हुए, इन दो प्रकार के पदार्थ विगइ में आते हैं । घी या तेल गरम होने के बाद पहला, दूसरा और तीसरा पाया तलकर निकालते हैं, वही पकवान विगइ कहलाता है । 19 इसका दूसरा नाम अवगाहिक भी है । इसके बाद के चौथा, पांचवा और छठा आदि पाया निर्विकृति कहा जाता है क्योंकि वह खानेवाले के शरीर में, मन में, विकृति लाने में समर्थ नहीं है । छः विगइ द्वारा 30 प्रकार के निर्विकृतिक भोजन तैयार किया जाता है और वही भोजन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संप्रदाय की परंपरानुसार जब साधु-साध्वी आगम सूत्रों के अध्ययन की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिये योगोद्वहन करते हैं या श्रावक लोग नमस्कार महामंत्र आदि के अध्ययन की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए उपधान तप करते हैं तब नीवी याने की एकाशन करते वक्त लिया जाता है ।20 __ चार महाविगइ में मांस और मद्य के बारे में कोई विशेष पिष्टपेषण करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उसके बारे में अन्यत्र बहुत कुछ लिखा गया है । तथापि यहाँ केवल उनके भेद ही बताये जाएंगे। ___ 1. मांस : जैन ग्रंथों में मांस तीन प्रकार का बताया गया है : 1. जलचर जीवों का, जैसे मछली आदि का, 2. स्थलचर जीवों का जैसे सुअर, गाय, भैंस, आदि पशुओं का । 3. खेचर जीवों का जैसे हंस, काग, चिडिया आदि पक्षियों का P1 जैन परंपरानुसार सजीव प्राणियों की मृत्यु होते ही उसके मांस, खून आदि में उसके वर्णसदृश असंख्य जीवों की उत्पत्ति होती है । अत: अहिंसा के पालन के लिए उसका त्याग करना आवश्यक ही हैं 22 2. मद्य : जैन ग्रंथो के अनुसार मद्य दो प्रकार के हैं । 1. काष्ठ मद्य अर्थात् फल-फूल इत्यादि वनस्पति से सीधे ही बनाया हुआ और 2. पिष्ट मद्य अर्थात् आटा में सड़न लाकर बनाया हुआ 13 जैन ग्रंथकारों ने मद्य को प्रमाद का अंग/कारण बताया है । मद्यपान करने से चित्तनाश अर्थात् चित्तभ्रम पैदा होता हैं । 24 निनोक्त संस्कृत पद्य में मद्यपान के सोलह दोष बताये हैं। वैरुप्यं, व्याधिपिण्ड :2 स्वजनपरिभवः, कार्यकालातिपातो विद्वेषो, ज्ञाननाश, स्मृतिमतिहरणं, विप्रयोगश्च सद्भिः । पारुष्यं, नीचसेवा,1 फुल बलतुलना, धर्म का मार्थ "हानि : कष्टं भोः ! षोऽशैते निरूपचयका मद्यपानस्य दोषाः ।।25 मद्य बनाने के लिए उसके घटक द्रव्यों को इकट्ठा करके सड़न-गलन करनी पड़ती है और यह एक प्रकार का बैक्टीरियल फर्मेन्टेशन ही है, जो शरीर और दिमाग के लिए हानिकर्ता है । अत: जैन शास्त्रकारों ने मद्यपान का पूर्णतया निषेध किया है ।

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