Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 156
________________ जैनदर्शन : वैज्ञानिक दृष्टिसे 57 पंद्रह दिन तक उसे इकट्ठा करते हैं, बाद में इसमें से घी बनाते हैं। ऐसे बहुत साल पहले दक्षिण भारत के एक शहर के जैन चौके में देखा गया था कि दोपहर के बाद रसोइ करनेवाले महाराज ने काले वस्त्र में लिपटे हुए मक्खन के तीन चार बडे बडे पिण्डों को बर्तन में गरम करने लगे तो मक्खन पिघलने लगा और उसमें की डे, लट भी दिखाई पडे थे । अतः इस प्रकार बनाया गया अभक्ष्य ही है । किन्तु आजकल ऐसी मशीने हैं जो दूध में से सीधे ही घी (Fat) को खींच लेती है या तो दूध की मलाई को जमाकर, उसे गर्म करके घी बनाया जाता है, अत: इस प्रकार बनाया गया घी भक्ष्य ही है । 1 1 वैज्ञानिक दृष्टि से घी, तेल, आदि वस्तुतः एक प्रकार की चर्बी है, जो शरीर के यंत्र में गर्मी व शक्ति के लिए आवश्यक होती है । शरीर में उसका दहन होता है इसी से शक्ति प्राप्त होती है, वही शक्ति से शरीर के अन्य सब विभाग कार्यान्वित रहते हैं । यदि मनुष्य जरूरत से ज्यादा घीदूध-दही आदि लेते हैं तब शेष चर्बी त्वचा के नीचे जमा होती है और जब किसी भी कारण से मनुष्य को आहार न मिलने पर या उपवास आदि तपश्चर्या के दौरान वही चर्बी का दहन होता है और उसमें से शक्ति प्राप्त होती है । अतः प्रत्येक मनुष्य के लिए परिमित मात्रा में घी-दूध लेना चाहिए । 4. तेल : जैसे घी दूध-दही के अनेक प्रकार में से सिर्फ चार पांच ही भेद विकृति में गिनाये गये हैं ठीक उसी तरह तेल में भी जैन शास्त्रकारों ने सिर्फ चार प्रकार के तेल को विग में गिना है । 1 तिल का तेल, 2 अलसी का तेल 3 सरसों का तेल और 4 कुसुम्भ नामक घास का तेल । अन्य शेष तेलों का विकृति में समावेश किया नहीं है ।12 तथापि मूंगफली, नालियेर आदि के तेल का समावेश करना चाहिए, क्योंकि जिस काल में ये सब ग्रंथ लिखे गये उसी काल में प्रायः सब लोग ज्यादातर इन तेलों का ही खुराक में इस्तेमाल करते होंगे और शेष तेलों का इस्तेमाल करने की शायद कल्पना भी नहीं होगी । अतः ग्रंथकार ने सिर्फ इन्हीं तेलों को ही विकृति में समाविष्ट किये होंगे । तिल का तेल शरीर को सशक्त बनाता है और पाचन क्रिया का उद्दीपन करता है । इससे मसाज / अभ्यंग करने पर त्वचा और आँखों को फायदा होता है । खुराक में तिल के तेल लेनेवालों को पक्षघात नहीं होता है । सरसों का तेल वात और कफ दूर करता है, उसके प्रमाण को संतुलित करता है और आंतो में पैदा हुए कृमियों को भी दूर करता है । इससे मसाज / अभ्यंग करने पर त्वचा की रूक्षता दूर होती है और त्वचा मजबूत, स्निग्ध व कोमल बनती है। मूंगफली के तेल से वात का नियंत्रण होता है । 13 5. गुड़ और शक्कर : जैन ग्रंथों में गुड़ के दो प्रकार बताये है । 1 द्रव्य गुड़, 2 कठिन (पिण्डीभूत) गुड़ । दोनों प्रकार के कच्चे गुड़ का विगइ में समावेश होता है ।14 गुड़ में बहुत ही शक्ति है । ड्रायफुट्स और भुने हुए चने के साथ गुड़ खाने से शरीर में बहुत ताकत आती है । प्राचीन भारत में और आज भी अश्व को गुड़ और चने खिलाये जाते हैं । शक्कर से शरीर में शीघ्र

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