Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 149
________________ 50 Jainism : Through Science हो सकता है किन्तु ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखा-प्रशाखाओं में वह प्रवीण नहीं होता है, अतः शास्त्रकार महर्षियों ने जिस दृष्टिकोण से उपर्युक्त बातें कही हैं, वही दृष्टिकोण हमारी ज्ञानसीमाओं से परे भी तो हो सकता है । श्री जतनलालजी को जो बातें न विज्ञान-सम्मत लगती, न तर्कसंगत, वे ही अन्य किसी को विज्ञान-सम्मत और तर्कसंगत भी लग सकती है, क्योंकि उनके सोचने का ढंग भिन्न होता है । श्री जतनलालजी ने शुरू में पाका पानी आदि सात बातों का उल्लेख किया है किन्तु सारे लेख में केवल पाका पानी का ही पिष्टपेषण है । शेष छह बातों पर कोई विस्तृत विचार नहीं किया है । वे आगम/किताबों एवं विद्वान् गुरुजनों के सान्निध्य को ज्ञानार्जन का महत्त्वपूर्ण स्रोत, या साधन में स्वीकार करते हुए भी उनके महत्व को भलीभाँति समझ नहीं पाये हैं। सारे विश्व में जहाँ कहीं आत्मा है, जीव है, वहाँ ज्ञान तो है ही; क्योंकि ज्ञान जीव का महत्त्वपूर्ण लक्षण है, उसके बिना जीव की अस्मिता नहीं बनती किन्तु सर्वज्ञ के ज्ञान और छद्मस्थ के ज्ञान में बहुत अन्तर होता है । सर्वज्ञ का ज्ञान पूर्णतः अनावृत्त है, जब कि छद्मस्थ का ज्ञान अधिकांश में आवृत्त होता है । ज्यों-ज्यों आत्मा की आध्यात्मिक उन्नति होती है, त्यों-त्यों उसका ज्ञान अनावृत्त होता जाता है; अतः ज्ञान जीवन को उसके सृष्टा का प्रथम एवं अन्तिम उपहार है, ऐसा कहना नितान्त गलत है; क्योंकि जैनधर्म ईश्वर-कर्तृत्व नहीं मानता है । श्री जतनलालजी का कहना है कि शास्त्रों में लिखी बातों और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा कही बातों को संपूर्ण या अन्तिम सत्य मान लेने से प्रगति रुक जाती है । उनका यह कथन छद्मस्थ जीवों के शब्दों के लिए सत्य है; किन्तु सर्वज्ञ के कथन के लिए अयथार्थ है । हालाँकि सर्वज्ञ का वचन भी सापेक्ष सत्य होते हुए भी जिस.दृष्टिकोण से उन्होंने कथन किया है, वही दृष्टिकोण में वह पूर्णतः सत्य होता है और तीनों काल में अबाधित रहता है । ऐसे संपूर्ण त्रिकालाबाधित सत्य को परिष्कृत करने की कोई आवश्यकता नहीं है । केवल वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनका अर्थ, या रहस्य समझने/समझाने की ज़रूरत है । ___ पानी सजीव है । उसका प्रत्येक अणु सजीव है । साथ ही इसके अन्य सजीवों की उत्पत्ति का स्थान होने से अन्य कई प्रकार के जीवाणु, कीटाणु भी उसमें होते है, जो शरीर में बहुत सी व्याधियाँ पैदा करने में समर्थ होते हैं; अत: स्वास्थ्य की दृष्टि से पानी को उबाल कर ही पीना उपयुक्त है । वर्तमान में पानी को अचित्त, प्रासुक करने के लिए कहीं-कहीं उसमें थोड़ी-सी राख, चूना या शक्कर मिला देते है । यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से राख, चूना या चीनी पानी में डालने से वह अचित्त हो जाता है, तथापि पानी में राख या चूना किस अनुपात में डालना, और कितने समय बाद वह फिर अचित्त हो पडता है, इसकी कोई जानकारी शास्त्रों, या अन्य किसी स्त्रोत से हमें प्राप्त नहीं है । वस्तुतः इसी तरह अचित हुआ पानी लेना सिर्फ साधु-साध्वी के लिए ही उचित है; क्योंकि यदि उनके लिए कोई गृहस्थ पृथ्वी, जल, अग्नि आदि सचित्त द्रव्यों का उपमर्दन करता तो भी उसका दोष लगता है । यदि साधु-साध्वी के लिए ही इसी तरह पानी अचित्त करने पर, ऐसा पानी प्रासुक होने पर भी साधु-साध्वी के लिए वह अणेषणीय-अकल्प्य है । प्राचीन काल में गोचरी के लिए निकले साधु-साध्वी, स्वाभाविक रूप से दाल या चावल को धोया हुआ

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