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Jainism : Through Science प्रकरण' में यह बात कही है ।
चौथी बात, श्री जतनलालजी का कहना है कि धरती पर प्राप्त सब प्रकार का पानी कुछ-नकुछ मिट्टी, राख इत्यादि पदार्थों से युक्त होता ही है; अतः वह अचित्त ही होता है, तो फिर उसे अचित्त करने की क्या आवश्यकता है ? शुद्ध पानी केवल प्रयोगशाला में ही मिलता है । उनकी यह बात विचारणीय अवश्य है, किन्तु उसका भी समाधान है । इस तरह प्राप्त जल अचित्त भी हो सकता है और सचित्त भी । हम छद्मस्थ हैं, अतः हमें शत प्रतिशत जानकारी नहीं है कि यह पानी सचित्त है या अचित्त इसलिए उस पानी का चाहे वह निसर्ग से अचित्त ही हो, पुनः अचित्त करना ज़रूरी है।
श्री जतनलालजी वर्षा केजल की रसोई-घर में बाष्प में-से परिवर्तित जल के साथ तुलना करते हुए बताते हैं कि यदि वर्षा का जल सचित्त है तो रसोईघर में बर्तन के ढक्कन पर लगी जल की बूंद, जो बाष्प से निर्मित है, उसे भी सचित्त मानना चाहिये; किन्तु उनकी यह बात भ्रम पैदा करने वाली है । ऊपर-ऊपर से देखने में दोनों प्रक्रियाएँ एक-सी लगती हैं; किन्तु वास्तव में दोनों में बड़ा अन्तर हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार गर्म किया हुआ पानी, जाड़े में 12, गर्मी में 15, वर्षा में 9 घंटों तक अचित्त रहता है, उसके पश्चात् वह सचित्त हो जाता अत: रसोईघर में बाष्प से बूंद में परिवर्तित जल भी अचित्त ही है; क्योंकि उसमें उपर्युक्त मर्यादा से अधिक समय व्यतीत नहीं होता है; जबकि वर्षा का जल, जल में परिवर्तित होने के बाद, उपर्युक्त समय-मर्यादा अतिक्रान्त हो जाती है । शास्त्रकारों ने वर्षा के जल को सचित्त बताया है । ठीक उसी तरह प्रयोगशाला में तैयार शुद्ध जल (डिस्टिल्ड वाटर) जिसे डॉक्टर इंजेक्शन के लिए इस्तेमाल करते हैं, वह भी अत्यन्त शुद्ध होने के बावजूद सचित्त होता है ।
रेफ्रीजरेटर द्वारा ठण्डे किये गये पदार्थों एवं बर्फ आदि के बर्तन की बाहरी सतह पर लगे सूक्ष्म जलकण, जो वातावरण में उपस्थित बाष्प से निष्पन्न होते हैं, वे अचित्त होने पर भी, सचित्त द्रव्य का परिहार करने वाले साधु-साध्वियों और श्रावकों के लिए त्याज्य हैं, क्योंकि उन लोगों के लिए बर्फ सचित्त अप्काय होने के कारण और रेफ्रीजरेटर द्वारा ठण्डे किये हुए पदार्थ भी सचित्त अप्काय-मिश्रित होने के कारण त्याज्य हैं; अत: उन पदार्थों के संसर्ग से निष्पन्न सूक्ष्म जलकणों का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। __ अन्त में रामपुरियाजी ने प्रश्न उपस्थित किया है कि जिसतरह पानी को हम अचित्त बनाते हैं, ठीक उसी तरह हवा को भी अचित्त बनाना चाहिये; क्योंकि हवा भी हमारे शास्त्रों के अनुसार सचित्त होती है । उनकी यह बात भी तर्कसंगत नहीं है । जल और हवा दोनों मनुष्य जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी पदार्थ होने के बावजूद भी दोनों के स्वरूप में बहुत कुछ अन्तर है; अतः जो बातें हम जल पर लागू करते है, वे ही हवा पर लागू करने में केवल बौद्धिक कौशल का प्रदर्शन है; अतः इसके समाधान की यहां कोई आवश्यकता नहीं है ।
- मुनि नन्दीघोषविजय (तीर्थकर : मई,91)