Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 145
________________ 46 Jainism : Through Science परिणाम निकलेगा इसका कोई सूत्र है, ऐसा नहीं लगता और है तब भी ऐसा पानी पीने वाले अधिकांश व्यक्तियों को उसकी जानकारी नहीं है; फलस्वरूप जैसा जिसका हाथ चला, वही सही हो जाता है । पानी भी जैसा चाहे हो सबके लिए वही एक चुटकी राख संजीवनी है । कुण्डों में इकट्ठा किया वर्षा का मीठा पानी हो अथवा कुओं का खारा, नगर निगमों द्वारा वितरित क्लोरीन-युक्त पानी हो अथवा फिटकरी से साफ किया गंगाजल, कोकरनाग (कश्मीर) का खनिज जल हो या राजगिरि (राजगृह) के गन्धक मिले गर्म स्रोत सबके लिए एक ही औषध है । राख मिलाने की क्रिया को लोग, बिना उसकी आवश्यकता पर सोचे और उसके परिणामों को जाने, जिस निर्लिप्त मुद्रा में करते हैं, उसे देख मुझे उस सरीसृप की याद आती है, जो दीवार में अपना बिल बनाते समय भी खोदी हुई मिट्टी को मुँह में भर कर बिल बनाने की जगह से वैसे ही आठ इंच दूर जा कर गिराता है, जैसा कि वह समतल भूमि पर अपना बिल खोदते समय करता है । उसके लिए दीवार और समतल भूमि समान हैं, हमारे लिए सब पानी । अचित्त पानी के दूसरे पहलु-उसके उपयोग - के विषय में भी मुझे किसी ठोस चिन्तन का आभास नहीं हुआ । एक औसत व्यक्ति दिन में पाँच लीटर से अधिक पानी नहीं पीता, जबकि नहाने-धोने आदि अन्य कार्यों में वह 100 लीटर से कम खर्च नहीं करता । मगर अपवादस्वरूप एक-दो व्यक्तियों को छोड़ सबको मैंने पीने के पानी के लिए ही सौगन्ध लेते देखा है । 100 लीटर पानी की ओर से आँखें मूंद कर 5 लीटर की ओर समस्त ध्यान केन्द्रित रखना कुछकुछ बहुमूल्य आभूषणों को खुले में छोड़ कर चंद सिक्कों को ताले-की-सुरक्षा प्रदान करने-जैसा है । सिक्कों की चोरी होने से नुकसान नहीं होता ऐसी बात नहीं; मगर जिस तरह उस कारण व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता उसी तरह सिर्फ पीने के पानी को अचित्त रूप में इस्तेमाल करने से पुण्य का पलड़ा कुछ विशेष भारी नहीं होता । तीसरी बात, जिसे हमने सर्वथा गौण कर रखा है, शायद और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । अचित्त पानी बहुत से परिग्रहों का कारण है । घड़े कलश, ढक्कन, लोटा, गिलास और छानने का कपड़ा - ये न्यूनतम उपकरण हैं, जिनकी हमें अचित्त पानी के निमित्त अलग से आवश्यकता होती है । इन सबके लिए जो जगह चाहिये वह और भी बड़ा परिग्रह है; फिर इन सबकी साफसफाई एवं रख-रखाव में जो सचित्त क्रियाएँ होती हैं, जो समय और श्रम लगता है, उन्हें भी नकारना स्वयं को उस कबूतर की स्थिति में डालने जैसा है, जो बिल्ली के झपटने पर आँखे मूंद लेता है और सोचता है जब बिल्ली मुझे दिखायी ही नहीं देती तो खायेगी कैसे? अचित्त पानी की संकल्पना अगर सही है तब भी उपर्युक्त बातें उसके प्रयोग में पूर्ण सावधानी बरतने के लिए आग्रह करती हैं । साथ ही उसकी प्रक्रिया को सर्वथा विज्ञान-सम्मत बनाने और यह निश्चित रूप से तय कर लेने के लिए कहती हैं कि राख मिलाते ही क्या पानी (जो एक जीव का नाम भी हो सकता है) अपने मूलभूत गुणों को वांछित परिणाम ले आने की सीमा तक बदल लेता है । यहाँ इस बात पर विचार कर लेना भी समीचीन होगा कि पानी अथवा अन्य जीवों के साथ मनचाहा वर्ताव एवं उनके रूप और गुणों को इच्छानुसार परिवर्तित करने का

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