Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 131
________________ 2.(अ) आलू छोड़ो, मूली ___ छोड़ो-कषाय छोड़ो, क्रोध छोड़ो सम्पादकजी, कुछ दिनों पूर्व मुझे एक धार्मिक शिक्षण-शिबिर में जानेका अवसर मिला था । वहाँ जो साध्वियां पढ़ा रही थीं वे सभी शिक्षार्थियों को आलू छोड़ने पर विवश कर रही थी। कह रही थी जो ज़मीकन्द छोड़ेगा उसे नम्बर दिये जाएंगे । मुझे बहुत दिन पहले की एक बात स्मरण हो आयी - मास-क्षमण के उपलक्ष्य में आयोजित एक स्वधर्मी वात्सल्य में मैं उपस्थित था । वहां यही आग्रह था कि जो यहाँ आये हैं, उन सभी को प्रतिदिन मन्दिर-दर्शन का नियम लेना होगा ।मैं सहमत नहीं हुआ। मन्दिर जाएँ या न जाएँ यह मेरी अपनी अभिरूचि है । यह कोई थोपने की वस्तु नहीं है; वह भी जबर्दस्ती। साध्वियों की भी यह जबर्दस्ती ही तो थी । फिर एक रास्ता निकाला गया । जिसे छोड़ना हो, वह साध्वीजी के पास जा कर सौगन्ध ले । जबर्दस्ती नहीं की जाएगी और न ही नम्बर दिये जाएंगे। . सच तो यह है सम्पादकजी, साधु-साध्वी, चाहे वे जिस फिरके के हों सभी में एक ही धुन देखता हूँ, आलू छोड़ो, मूली छोड़ो' । मुझे तो अक्सर ऐसा लगता है कि यह भी एक प्रकार की व्याधि है, जिससे ये लोग त्रस्त हैं - दैहिक रूप से हों, या न हों; मानसिक रूप से अवश्य हैं । मनोवैज्ञानिक इस विषय में क्या कहेंगे मैं नहीं जानता फिर भी शायद यही कहेंगे - 'जब मैं उसका आस्वादन नहीं कर रहा हूँ तो दूसरा क्यों करे ?' ___ यदि कुछ छुड़ाना ही है तो आलू-मूली छुड़ा कर क्या होगा - कषायों को छुड़ाओ, क्रोध छुड़ाओ, आलस्य छुड़ाओ, मोह छुड़ाओ । पर यह सब वे किस मुंह से कहें ? क्या वे खुद ही इन्हें छोड़ पाये हैं ? इसीलिए तो उनकी नजर आलू-मूली पर रहती हैं । मेरे उन बहसी मित्र की बात मुझे याद हो आयी - जिन्हें साधु बार-बार कहने लगे-तुम्हें कुछ-न-कुछ तो छोड़ना ही होगा । उसने कहा - 'महाराज आप जो कहेंगे वह मैं छोड़ दूंगा; किन्तु इस शर्त पर कि जो मैं कहूँ वह आपको भी छोड़ना है।' ऐसा भी कोई मुंहफट उन्हें मिल सकता है इसकी तो शायद कल्पना भी नहीं की थी उन्होंने, अत: चौंक उठे । वह क्या ?' मेरे मित्र ने कहा - जो भी आपके पास आये उससे कुछ छुड़ाने का यह कदाग्रह । अब क्या जवाब

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