Book Title: Jain Darshan Vaigyanik Drushtie
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 127
________________ 28 Jainism : Through Science टिप्पणि: आवश्यक सूत्र टीका में - नियुक्तिगत : अगणीओ छिंदिज बोहियखोभाइ दीहडको वा । आगारेहिं अभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं ।1516॥ - गाथा की वृत्ति में 'अगणीओ' शब्दनिर्दिष्ट कायोत्सर्ग के आगार के बारे में टिप्पणी करते हुये बताया है - 'यदा ज्योतिःस्पृशति तदा प्रावरणाय कल्पग्रहणं कुर्वतो न कायोत्सर्गभङ्गः ।' (कायोत्सर्ग के दौरान यदि ज्योति की स्पर्शना हो तब आच्छादन के लिए वस्त्र का ग्रहण करने पर कायोत्सर्ग का भङ्ग नहीं होता किन्तु प्रतिक्रमण सूत्र के प्रबोधटीका नामक गुजराती विवेचन में अन्नत्थ सूत्र में इसी नियुक्तिगत गाथा के अगणीओ' शब्द को दो अर्थ बताये है (1) कायोत्सर्ग के दौरान, अग्नि फैलता हुआ, आकर यदि कायोत्सर्ग करते हुए व्यक्ति को स्पर्श करे, तब वह अन्यत्र, जाकर कायोत्सर्ग पूर्ण करें तब कायोत्सर्ग का भंग नहीं होता है। (2) दूसरा अर्थ आवश्यक सूत्र की टीका में बताया हुआ ही हैं । दूसरी ओर कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यजीने अपने 'अभिधान चिन्तामणि' शब्द कोश में अग्निकाय/तेजस्काय के शब्दों में कहीं भी 'प्रकाश' को अनिकाय के रूप में बताया नहीं है । 'अभिधान राजेन्द्र' कोष में भी एतद्विषयक कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। उपर्युक्त दोनों अर्थ में प्रथम अर्थ आगम से सम्मत लगता है । किन्तु द्वितीय अर्थ संदिग्ध है । हाला कि नियुक्तिगत इसी गाथा में 'प्रकाश' को अनिकाय नहीं बताया है और अगणीओ' शब्द के द्वितीय अर्थ से ऐसा स्पष्ट निर्देश नहीं होता है कि प्रकाश - अग्निकायिक जीव के रूप में सजीव ही है, तथापि प्रकाश को सजीव माननेवाला वर्ग उसी पाठ का / अर्थ का आधार लेते है किन्तु उनके साथ बताये हुये अन्य तीन आगार के स्वरूप से द्वितीय अर्थ सही नहीं लगता है । तत्त्वं तु केवलिगम्यम् ।

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