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जैन-दर्शन
सोचना मानव का श्रावश्यक स्वभाव बना रहेगा तबतक मानव-जीवन में हमेशा दर्शन रहेगा । चिन्तन मानव के जीवन से दूर हो जाय, यह अभी तक तो संभव प्रतीत नहीं होता। ऐसी दशा में हम इस निर्णय पर पहुँच सकते हैं कि जहाँ-जहाँ मानव रहेगा, दर्शन अवश्य रहेगा । दर्शन के प्रभाव में मानव का अस्तित्व ही असंभव है। यह . एक दूसरा प्रश्न है कि दर्शन का स्तर क्या है ? किसी समाज की विचारधारा अधिक विकसित हो जाती है, तो किसी की प्रारम्भिक अवस्था में ही रहती है । इन्हीं अवस्थाओं के आधार पर हम दर्शन के स्तर का भी निश्चय करते हैं । जीवन में दर्शन रहेगा अवश्य, चाहे वह किसी भी स्तर पर रहे ।
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दार्शनिक इतिहास को देखने से पता चलता है कि मनुष्य की विचारधारा या चिन्तन-शक्ति का प्रमुख केन्द्र उसका जीवन ही रहा है | उसने सोचना प्रारम्भ तो किया अपने जीवन पर, किन्तु जीवन के साथ-साथ रहने वाली या तत्सम्बद्ध अनेक समस्याओं पर भी उसे सोचना पड़ा, क्योंकि उन समस्यायों का समाधान किए 'बिना जीवन का पूरा चिन्तन संभव न था । जीवन के सर्वाङ्गीण 'चिन्तन के लिए यह अत्यन्त आवश्यक था कि जीव' से सम्बन्धित जगत् के अन्य तत्त्वों का भी अध्ययन किया जाता और हुआ भी ऐसा ही । ऐसा होते हुए भी मनुष्य ने दूसरी समस्याओं को इतना 'अधिक महत्त्व नहीं दिया कि जीवन का मूल प्रश्न गौरण हो जाता । "कहीं-कहीं पर उससे यह त्रुटि अवश्य हुई, किन्तु वह शीघ्र ही संभलता गया और अपने क्षेत्र को बराबर संभालता रहा । दर्शन का मुख्य प्रयोजन, जीवन का चिन्तन या मनन है, ऐसा कहने का अर्थ इतना ही है कि उस चिन्तन या मनन का केन्द्र जीवन है । जीवन के साथ-साथ अन्य चीजों को भी लिया जाता है, किन्तु गौण रूप से, अर्थात् उसी सीमा तक जहाँ तक कि जीवन के चिन्तन में वे चीजें सहायक बनें ।. बाधक बनने की हालत में उन्हें छोड़ दिया जाता है । जीवन के मूल तत्त्वों का अध्ययन करना और उन्हें समझने का प्रयत्न करना और विवेक की कसौटी पर कसे हुए तत्त्वों के अनुसार आचरण : करना - यही दर्शन का जीवन के साथ वास्तविक सम्बन्ध है ।
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