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पदार्थ, अर्थ आदि शब्दों का प्रायः एक ही अर्थ में श्रागमों में 'सत्' शब्द का प्रयोग वहुत कम है शब्द का ही प्रयोग है और द्रव्य को ही तत्त्व कहा
।
जैन- दर्शन
प्रयोग हुआ है ।
वहाँ प्रायः द्रव्य गया है ।
भगवती सूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है । गौतम महावीर से पूछते हैं - 'भगवन् ! यह लोक क्या है ?' महावीर उत्तर देते हैं - ' गौतम ! यह लोक पंचास्तिकाय रूप है । पंचास्तिकाय ये हैं-धर्मास्तिकाय, ग्रधर्मास्तिकाय, ग्राकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय' । यहाँ पर काल की स्वतन्त्र रूप से गणना नहीं की गई है । कई स्थानों पर काल को स्वतन्त्र रूप से गिना गया है । कहीं कहीं पर काल के स्थान में श्रद्धासमय शब्द का भी प्रयोग हुआ है । इस प्रकार काल को मिला देने से कुल छः द्रव्य हो जाते हैं । प्रत्येक द्रव्य जीव और अजीव के विश्लेषण से बनते हैं । जीवद्रव्यको जीवास्ति काय कहा गया । जीवद्रव्य के पाँचभेद किए गए — धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय श्राकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ( श्रद्धासमय ) |
जीव की भिन्न-भिन्न वृत्तियों के अनुसार उसकी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं और उन्हीं अवस्थाओं के आधार पर तत्त्व के नवभेद किये गये हैं । इन अवस्थाओं में अजीव का भी हाथ रहता है । नव भेद ये हैं- जीव, जीव, ग्रास्रव, बंध, पाप, पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इन नव भेदों में कुछ जीव की अपनी अवस्थाएँ हैं, कुछ अजीव की अपनी अवस्थाएँ हैं, व कुछ दोनों की मिश्रित अवस्थाएँ हैं । इस प्रकार जैन दर्शन विभिन्न दृष्टिकोणों से विभिन्न तत्त्व मानता है । इतना होने पर भी यह निश्चित है कि उसका दृष्टिकोण पूर्ण रूप से यथार्थवादी है । वह चेतन और अचेतन दोनों तत्त्वों को यथार्थ मानता है । इन्हीं तत्त्वों को जीव और अजीव कहा गया है ।
१ - 'तत्त्व' की चर्चा का प्रकरण देखिए ।