Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 388
________________ ३५४ जैन-दर्शन अथवा पर्याप्त सामग्री के रहने पर भी जिसके कारण अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो वह लाभान्तराय कर्म है। भोग की सामग्री उपस्थित हो एवं भोग करने की इच्छा भी हो फिर भी जिस कर्म के उदय से प्राणी भोग्य पदार्थों का भोग न कर सके वह भोगान्तराय कर्म है । इसी प्रकार उपभोग्य वस्तुओं का उपभोग न कर सकना उपभोगान्तराय कर्म का फल है । जो पदार्थ एक बार भोगे जाते हैं वे भोग्य कहलाते हैं तथा जो बार-बार भोगे जाते हैं वे उपभोग्य कहलाते हैं। अन्न, जल, फल आदि भोग्य पदार्थ हैं। वस्त्र, आभूपण, स्त्री आदि उपभोग्य पदार्थ हैं। जिस कर्म के उदय से प्राणी अपने वीर्य अर्थात् सामर्थ्य-शक्ति-वल का चाहते हुए भी उपयोग न कर सके उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं । कर्मों की स्थिति : ___ जैन कर्मग्रंथों में ज्ञानावरण आदि कर्मों की विभिन्न स्थिति वतलाई गई है जिसके कारण वे उतने समय तक उदय में रहते हैं । यह स्थिति जो कि न्यूनतम एवं अधिकतम रूपों में मिलती है. इस प्रकार है : अधिकतम समय न्यूनतम समय ज्ञानावरण तीसकोटाकोटि अन्तमुहूर्त सागरोपम दशनावरण वेदनीय बारह मुहूर्त मोहनीय सत्तर कोटाकोटि अन्तर्मुहूर्त सागरोपम पायु तैंतीस सागरोपम नाम बीस कोटाकोटि आठ मुहूर्त सागरोपम गोत्र अन्तराय तीस कोटाकोटि अन्तमुहूर्त सागरोपम " १.-सागरोपम आदि के स्वरूप के लिए देखिए Doctrine of Karman in Jain Philosophy, पृ० २०

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