Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 389
________________ कर्मवाद ३.५५ कर्मफल की तीव्रता-मन्दता : कर्मफल की तीव्रता और मन्दता का आधार तन्निमित्तक कषायों की तीव्रता-मन्दता है । जो प्राणी जितना अधिक कषाय की तीव्रता से युक्त होगा उसके अशुभ कर्म उतने ही प्रबल एवं शुभ कर्म उतने ही निर्बल होंगे। जो प्राणी जितना अधिक कषायमुक्त एवं विशुद्ध होगा उसके शुभ कर्म उतने ही अधिक प्रबल एवं अशुभकर्म उतने ही अधिक दुर्वल होंगे। कर्मों के प्रदेश : प्राणी अपनी कायिक आदि क्रियाओं द्वारा जितने कर्मप्रदेश अर्थात् कर्मपरमाणु आकृष्ट करता है वे विविध प्रकार के कर्मों में विभक्त होकर आत्मा के साथ वद्ध होते हैं । आयु कर्म के हिस्से में सब से कम भाग आता है। नाम कर्म को उससे कुछ अधिक हिस्सा मिलता है । गोत्र कर्म का हिस्सा भी नाम कर्म जितना ही होता है। इससे कुछ अधिक भाग .ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय को प्राप्त होता है। इन तीनों का भाग समान रहता है। इससे भी अधिक भाग मोहनीय के हिस्से में आता है। सबसे अधिक भाग वेदनीय को मिलता है। इन परमागुओं का पुनः अपनी-अपनी उत्तर प्रकृतियों में विभाजन होता है। कर्म की विविध अवस्थाएँ : जैन कर्मसाहित्य में कम की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है । इनका मोटे तौर पर ग्यारह भेदों में वर्गीकरण किया जा सकता है । ये भेद इस प्रकार हैं: १-बन्धन, २-सत्ता, ३-उदय, ४-उदीरणा, ५-उदवर्तना, ६-अपवर्तना, ७-संक्रमण ८-उपशमन, ह-निवत्ति, १०-निकाचन, ११-अबाध ।' १-बन्धन-ग्रात्मा के साथ कर्म-परमाणुगों का वंधना अर्थात् नीर-क्षीरवत् एक रूप हो जाना बन्धन कहलाता है । वन्धन चार १-देखिए-यात्ममीमांसा, पृ० १२८-१३१; Jaina Psychology, पृ० २५-६.

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