Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 391
________________ कर्मवाद ३५७ राख से प्रावृत्त अग्नि आवरण हटते ही अपना कार्य करना प्रारम्भ कर देतो है उसी प्रकार उपशमन अवस्था में रहा हुया कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदय में आकर फल देना प्रारम्भ कर देता है। -नित्ति--जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है किन्तु उद्वर्तना व अपवर्तना की असंभावना नहीं होती उसे निधत्ति कहते हैं। १०–निकाचन--जिसमें उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव रहता है उसे निकाचन कहते हैं । इस अवस्था का अर्थ है कर्म का जिस रूप में बन्ध हुआ है उसी रूप में उसे भोगना । ११-अबाध--बंधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार का फल न देने की कर्म की अवस्था का नाम अबाध अवस्था है। इस प्रकार की अवस्था के काल विशेष को अबाधा-काल कहते हैं । कर्म और पुनर्जन्म: कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य सम्बन्ध है । कर्म की सत्ता स्वीकार करने पर तद्फलरूप परलोक अथवा पुनर्जन्म की सत्ता भी स्वीकार करनी पड़ती है। जैन कर्म साहित्य में समस्त संसारी जीवों का समावेश चार गतियों में किया गया है : मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक और देव । मृत्यु के पश्चात् प्राणी अपने गति नाम कर्म के अनुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में उत्पन्न होता है । जब जीव एक शरीर छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करने वाला होता है तब पानुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचा देता है । गत्यन्तर के समय जीव के साथ केवल दो प्रकार के शरीर रहते हैं : तैजस और कार्मरण । अन्य प्रकार के शरीर-औदारिक अथवा वैक्रिय का निर्माण वहाँ पहुँचने के बाद प्रारम्भ होता है।

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