Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 386
________________ ३५२ जैन-दर्शन नोकषाय के नव भेद हैं : १-हास्य, २-रति ३-अरति, ४-शोक, ५-भय, ६-जुगुप्सा, ७-स्त्रीवेद, ८-पुरुषवेद, ६-नपुंसकवेद । नपुसकवेद का अर्थ स्त्री और पुरुष दोनों के साथ संभोग करने की कामना के अभाव के रूप में नहीं अपितु तीव्रतम कामाभिलापा के रूप में है जिसका लक्ष्य स्त्री और पुरुप दोनों हैं । आयु कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ चार हैं : १-देवायु, २-मनुष्यायु, ३-तियञ्चायु, ४-नरकायु । प्राय कर्म की विविधता के कारण प्राणी देवादि गतियों में जीवन यापन करता है । आयु कर्म के क्षय से प्राणी की मृत्यु होती है । प्रायु दो रूपों में उपलब्ध होती है : अपवर्तनीय और अनपवर्तनोय । वाह्य निमित्तों से प्रायु का कम होना अर्थात् नियत समय से पूर्व प्रायु का समाप्त होना अपवर्तनीय आयु कहलाता है । इसी का नाम अकालमृत्यु है । किसी भी कारण से कम न होने वाली आयु को अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। नाम कर्म की एकसौ तीन उत्तर प्रकृतियाँ हैं । ये चार श्रेणियों में विभक्त हैं : पिण्डप्रकृतियाँ, प्रत्येकप्रकृतियाँ, त्रसदशक और स्थावरदशक । पिण्डप्रकृतियों में निम्नोक्त पचहत्तर प्रकार के कार्यों से सम्बन्धित कर्मों का समावेश है. (१) चार गतियाँ-देव, नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य; (२) पाँच जातियाँ-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय, (३) पाँच शरीर-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कामगा; (४) तीन उपांग-औदारिक, वैक्रिय और आहारक तैजस और कार्मरण शरीर के उपांग नहीं होते); (५) पन्द्रह बन्धन-औदारिक-औदारिक, औदारिकतैजस, औदारिक-कार्मण, औदारिक-तैजस-कार्मण, वैक्रिय-वैक्रिय, वेक्रिय-तैजस, वैक्रिय-कार्मण, वैक्रिय-तैजस-कार्मरण, आहारकआहारक आहारक-तैजस, आहारक-कार्मण, आहारक-तैजसकार्मण, तैजस-तैजस, तैजस-कार्मण और कार्मरण-कार्मण ; (६) पाँच संघातन-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण; (७) छः संहनन-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिक और सेवात ; (८) छ: संस्थान-समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, सादि, कुब्ज, वामन और हुण्ड ; (६) शरीर के

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