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जैन दर्शन र उसका ग्राधार
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नववें ग्रध्याय में संवर, उसके साधन और भेद, निर्जरा और उसके उपाय, साधक और उनकी मर्यादा पर विशद विवेचन है ।
दसवें अध्याय में केवल ज्ञान के हेतु, मोक्ष का स्वरूप, मुक्तात्मा की गति व स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है ।
तत्त्वार्थ पर टीकाएँ :
I
तत्त्वार्थ सूत्र पर एक भाष्य मिलता है जो उमास्वाति की अपनी ही रचना है। इसके अतिरिक्त 'सवार्थसिद्धि' नाम की एक संक्षिप्त किन्तु प्रति महत्त्वपूर्ण टीका मिलती है। यह टीका आचार्य पूज्यपाद की कृति है जो छठी शताब्दी में हुए थे । ये दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य थे । कलंक ने 'राजवातिक' की रचना की। यह टीका बहुत विस्तृत एवं सर्वाङ्गपूर्ण है । दर्शन के प्रत्येक विषय पर किसी-न-किसी रूप में प्रकाश डाला गया है । कही-कहीं खण्डन- मण्डन की दृष्टि की मुख्यता है । विद्यानन्द कृत 'श्लोकवार्तिक' भी बहुत महत्त्वपूर्ण टीका है । ये दोनों दिगम्बर परम्परा के अनुयायी थे । इनके अतिरिक्त सिद्धसेन और हरिभद्र ने क्रमश. बृहत्काय और लघुकाय वृत्तियों की रचना की । ये दोनों श्वेताम्बर परम्परा के उपासक थे । इन सभी टीकात्रों में दार्शनिक दृष्टिकोण ही प्रधान रूप से मिलता है। जैन दर्शन को ग्रागे की प्रगति पर इन टीकाओं का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है । ये टीकाएँ आठवीं-नवीं शताब्दी में लिखी गई । जिस प्रकार दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' पर धर्मकीर्ति ने 'प्रमाणवार्तिक' लिखा और उसी को केन्द्रबिन्दु मान कर समग्र बौद्धदर्शन विकसित हुआ, उसी प्रकार तत्त्वार्थ सूत्र की इन टीकाओं के ग्रासपास जैन दार्शनिक साहित्य का बड़ा विकास हुआ। इन टीकाओं के प्रतिरिक्त बारहवीं शताब्दी में मलयगिरि ने और चौदहवीं शताब्दी में चिरन्तन मुनि ने भी तत्त्वार्थ पर टीकाएँ लिखीं। अठारहवीं शताब्दी में नव्यन्याय होली के प्रकाण्ड पण्डित यशोविजय ने भी अपनी टीका लिखी । दिगम्बर परम्परा के श्रुतसागर, विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, लक्ष्मीदेव, अभयनन्दी आदि विद्वानों ने भी तत्त्वार्थ सूत्र पर अपनी-अपनी टीकाएँ लिखी थीं। बीसवीं शताब्दी में पं० सुखलाल जी संघवी आदि