Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 382
________________ ३४८ जैन दर्शन गृहीत परमाणुओं के समूह का कर्मरूप से प्रात्मा के साथ बद्ध होना जैन कर्मवाद की परिभाषा में प्रदेश-बन्ध कहलाता है। इन्हीं परमाणुओं की ज्ञानावरणादि रूप परिणति को प्रकृतिबन्ध कहते हैं । कर्मफल के काल को स्थिति-बन्ध तथा कर्मफल की तीव्रता-मंदता को अनुभाग-बन्ध कहते हैं। कर्म बँधते ही फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते । कुछ समय तक वे वैसे ही पड़े रहते हैं। कर्म के इस काल को अबाधाकाल कहते हैं। अबाधाकाल के व्यतीत होने पर ही बद्धकर्म फल देना प्रारम्भ करते हैं। कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय कहलाता है । कर्म अपने स्थिति-बन्ध के अनुसार उदय में आते रहते हैं एवं फल प्रदान करते हुए आत्मा से अलंग होते रहते हैं । इसी को निर्जरा कहते हैं । जिस कर्म का जितना स्थिति-बन्ध होता है वह उतनी ही अवधि तक उदय में आता रहता है । जब प्रात्मा से समस्त कर्म अलग हो जाते हैं तब जीव कर्ममुक्त हो जाता है । आत्मा की इसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं। कर्मप्रकृति : जैन कर्मशास्त्र में कर्म की आठ मल प्रकृतियाँ मानी गई है। ये प्रकृतियाँ प्राणी को भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल फल प्रदान करती है। इन आठ प्रकृतियों के नाम ये है : १-ज्ञानावरण, २-दर्शनावरण, ३-वेदनीय ४-मोहनीय, ५-पायु, ६-नाम, ७-गोत्र, ८-अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घाती प्रकृतियाँ हैं क्योंकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणों--ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है। शेष चार प्रकृतियाँ अघाती है क्योंकि ये आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करतीं । ज्ञानावरण कर्मप्रकृति आत्मा के ज्ञान गुण का घात करती है। दर्शनावरण कर्मप्रकृति आत्मा के दर्शन गुण का घात करती है । मोहनीय कर्मप्रकृति से प्रात्मसुख का घात होता है। अन्तराय कर्मप्रकृति के कारण वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति का १-देखिये-कर्मग्रन्थ प्रथम भाग तथा । Outlines of Jaina Philosophy, अन्तिम प्रकरण ।

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