Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 383
________________ फर्मवाद ३४६ घात होता है । वेदनीय कर्मप्रकृति अनुकूल एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुग्य-दुःग्व के अनुभव का कारण है । प्राय कर्मप्रकृति के कारण नरकादि विविध भवों की प्राप्ति होती है । नाम कमप्रकृति विविध गति, जाति, शरीर ग्रादि का कारण है । गोत्र कर्मप्रकृति प्रागियों के उच्चाव एवं नीचत्व का कारण है। ज्ञानावरगा कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ है : १-मतिनानावरगा, २-श्रुतज्ञानावरगा, ३-अवधिनानावरगा, ४-मन:पर्यायनानावरगा, ५-वलज्ञानावरगा । मतिज्ञानावरगा कर्म मतिनान प्रर्थात् इन्द्रियों व मन में उत्पन्न होने वाले ज्ञान को पाच्छादित करता है । श्रुतज्ञानावरगा कम श्रतमान अर्थात् गास्त्रों अथवा गब्दों के पठन तथा अवग से होने वाले अर्थज्ञान का निरोध करता है । अवधिज्ञानावरगा गर्म अवधिनान अर्थात् इन्द्रिय तथा मन की महायता के विना होने वाले रूपी पदार्थों के ज्ञान को प्रावृत्त करता है । मनःपर्यायजानावग्गा कर्म मनःपर्यायज्ञान अर्थात् इन्द्रिय व मन को महायता के बिना ममनन्य जीवों के मनोगत भावों को जानने वाले ज्ञान को ग्रामवादिन करता है। केवन-ज्ञानावरगा कर्म केवलगान अर्थात् लोक के अतीत, वर्तमान एवं सनागत समस्त पदार्थो को युगपत् जानने वाले ज्ञान को पावन करता है। दनावरण कर्म की नव उत्तर प्रगनियां हैं : ?-चनर्दनावन्या, २-अनार्दननावरगा, ३-अवधिदगनावरण, ४-केवलदगंनायगा. ५-निद्रा, ६-निद्रानिद्रा, -प्रचला. :-प्रचनाप्रचला, है-- ग्यानदि । प्रांवों हाग पयायों के नामान्य धर्म के ग्रहण को नक्षमांग की है। मरकार के दांन में पदार्थ का माधारण प्राभान होला । श्रदर्शन को प्रावृत पाने वाला काम नभर्दनावना कम पलाना है । यांगों के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों नया मन में पायों का जो सामान्य प्रतिमान होता है में अचभदंगन कही है। इस प्रकार के दांन पो यावत करने वाला काम अनक्ष टांनासा कर्म पहलाता है। निया नया पन की महावना के बिना माहागरपी पदापों का मामाना बोध होना अधिदान माता प्रकार दोन को पावन करने वाला कर्म प्रवधि

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