Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 380
________________ ३४६ जन-दर्शन कर्मवाद, नियतिवाद एवं इच्छास्वातंत्र्य : प्राणी अनादि काल से कर्म परम्परा में पड़ा हुआ है। पुरातन कर्मो के योग एवं नवीन कर्मों के बन्धन की परम्परा अनादि काल से चली आरही है । जीव अपने कृत कर्मों को भोगता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है । ऐसा होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्राणी एकान्त रूप से कर्मों के अधीन है अर्थात् वह कर्मों का बन्धन रोक ही नहीं सकता। यदि प्राणी का प्रत्येक कार्य कर्माधीन ही माना जाए तो वह अपनी आत्मशक्ति का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग कैसे कर सकेगा। प्राणी को सर्वथा कर्माधीन मानने पर इच्छा-स्वातन्त्र्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता । परिणामतः कर्मवाद नियतिवाद के रूप में परिणत हो जायगा।। कर्मवाद को नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद नहीं कह सकते। कर्मवाद यह नहीं मानता कि प्राणी जिस प्रकार कर्म का फल भोगने में परतन्त्र है उसी प्रकार कर्म का उपार्जन करने में भी परतन्त्र है। कर्मवाद यह मानता है कि प्राणी को स्वोपाजित कर्म का फल किसी न किसी रूप में अवश्य भोगना पडता है किन्तु जहाँ तक नवीन कर्म के उपार्जन का प्रश्न है, वह अमुक सीमा तक स्वतन्त्र होता है । यह सत्य है कि कृतकर्म का भोग किये बिना मुक्ति नहीं हो सकती किन्तु यह अनिवार्य नहीं कि अमुक समय में अमुक कर्म का उपार्जन हो ही । आन्तरिक शक्ति तथा बाह्य परिस्थिति को दृष्टि में रखते . हुए प्राणी अमुक सीमा तक नये कर्मों का उपार्जन रोक सकता है । यही नहीं, वह अमुक सीमा तक पूर्वकृत कर्मों को शीघ्र अथवा देर से भी भोग सकता है । इस प्रकार कर्मवाद में सीमित इच्छास्वातन्त्र्य स्वीकार किया गया है। . कर्म का अर्थ : _ 'कर्म' शब्द का अर्थ साधारणतया कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया किया जाता है। कर्मकाण्ड में यज्ञ आदि क्रियाएँ कर्म के रूप में प्रचलित हैं । पौराणिक परम्परा में व्रतनियम आदि क्रियाएँ कर्मरूप 'नी जाती हैं । जैन परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है :

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