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जैन-दर्शन
आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है । वह चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्त्ता है, साक्षात् भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौद्गलिक कर्मो से युक्त है । '
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'आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है' इस कथन का तात्पर्य यह है कि चार्वाकादि जो लोग आत्मा का पृथक् अस्तित्व नहीं मानते उन्हें उसकी स्वतन्त्र सत्ता में विश्वास करना चाहिए । इसके लिए हम बहुत कुछ लिख चुके हैं, ग्रत. यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं ।
'वह चैतन्य स्वरूप है' यह लक्षण वैशेषिक और नैयायिकादि उन दार्शनिकों को उत्तर देने के लिए है, जो चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक और औपाधिक गुण मानते हैं । आत्मा स्वरूप से चेतन नहीं है । बुद्धयादि गुणों के सम्बन्ध से उसमें ज्ञान या चेतना उत्पन्न होती है । जिस प्रकार अग्नि के सम्बन्ध से घट में रक्तता उत्पन्न होती है उसी प्रकार आत्मा में चेतना गुरण उत्पन्न होता है ।
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जब तक आत्मा में चैतन्य उत्पन्न नहीं होता तब तक वह जड़ है । जो लोग इस प्रकार चैतन्य की उत्पत्ति मानते हैं उनके मत से आत्मा स्वभाव से चेतन नहीं है । वे चैतन्य को आत्मा का आवश्यक गुरग नहीं मानते । चैतन्य अथवा ज्ञान एक भिन्न तत्त्व है और आत्मा एक भिन्न पदार्थ है । दोनों के सम्बन्ध से आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है । इसी सम्बन्ध के कारण हम कहते हैं कि यह आत्मा ज्ञानवान् है । जिस प्रकार दण्ड के सम्बन्ध से पुरुष दराडी कहा जाता है उसी प्रकार ज्ञान के सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानवान् कहा जाता है । वास्तव में ज्ञान और आत्मा अत्यन्त भिन्न हैं ।
१ - प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा ।
चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्त्ता साक्षादभोक्ता स्वदेह - परिमाणः प्रति
क्षेत्रं भिन्नः पोद्गलिकादृष्टवांश्चायम् ।
- प्रमाणनयतत्त्वालोक ७१५५-५६
२ - अग्निघटसंयोगजरोहितादिगुणवत् ।
- शांकरभाष्य - २।३।१८८