Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 362
________________ ३२८ जन-दर्शन है । सकलादेश की विवक्षा सकल धर्मों के प्रति है, जव कि विकलादेश की विवक्षा विकल धर्म के प्रति है । यद्यपि दोनों यह जानते हैं कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है--अनेकान्तात्मक है, किन्तु दोनों के कथन की मर्यादा भिन्न-भिन्न है। एक का कथन वस्तु के सभी धर्मों का ग्रहण करता है, जबकि दूसरे का कथन वस्तु के एक धर्म तक ही सीमित है । अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन की दो प्रकार की मर्यादा के कारण स्याहाद और नय का भिन्न-भिन्न निरूपण है। स्याद्वाद सकलादेश है और नय विकलादेश है। द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दृष्टिः वस्तु के निरूपण की जितनी भी दृष्टियाँ हैं, दो दृष्टियों में विभाजित की जा सकती हैं। वे दो दृष्टियाँ हैं द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । द्रव्यार्थिक दृष्टि में सामान्य या अभेदमूलक समस्त दृष्टियों का समावेश हो जाता है। विशेष या भेदमूलक जितनी भी दृष्टियाँ हैं सब का समावेश पर्यायाथिक दृष्टि में हो जाता है । प्राचार्य सिद्धसेन ने इन दोनों दृष्टियों का समर्थन करते हुए कहा कि भगवान महावीर के प्रवचन में मूलतः दो ही दृष्टियाँ हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । शेष सभी दृष्टियाँ इन्हीं की शाखा-प्रशाखाएँ हैं । महावीर का इन दो दृष्टियों से क्या अभिप्राय है, यह भी आगमों को देखने से स्पष्ट हो जाता है। भगवती सूत्र में नारक जीवों की शाश्वतता और अशाश्वतता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि अव्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से नारक जीव शाश्वत है, और व्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है । अव्युच्छित्तिनय द्रव्यार्थिक दृष्टि का ही नाम है। द्रव्यदृष्टि से देखने पर प्रत्येक पदार्थ नित्य मालूम होता है । इसीलिए द्रव्यार्थिक दृष्टि अभेदगामी है-सामान्यमूलक है-अन्वयपूर्वक है। व्युच्छित्तिनय का दूसरा नाम है पर्यायाथिक द्दष्टि । पर्यायदृष्टि से देखने पर वस्तु अनित्य भागमा कावार का इन शेष सभी दृष्टिया दो ही दृष्टियाते हुए कहा १-'स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा' । ___-लघीयस्त्रय, ३।६।६२ 0-सन्मति तर्क प्रकरण, ११३ ३-७१२१२७६

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