Book Title: Jain Darshan
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 367
________________ नयवाद ३३३ प्रथम अर्थात् नैगम नय के देश-परिक्षेपी और सर्व परिक्षेपी इस प्रकार के दो भेद हो जाते हैं, तथा अन्तिम अर्थात् शव्दनय के सांप्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ऐसे तीन भेद हैं । सात भेदों वाली परम्परा अधिक प्रसिद्ध है अत: नैगमादि सात भेदों के स्वरूप का विवेचन किया जायगा। नगम-गुण और गुणी, अवयत्र और अवयवी, जाति और जाति मान्, क्रिया और कारक आदि में भेद और अभेद की विवक्षा करना, नैगम नय है । गुण और गुणी कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न । इसी प्रकार अवयव और अवयवी, जाति और जातिमान् आदि में भी कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद । किसी समय हमारी विवक्षा भेद की अोर होती है, किसी समय अभेद की अोर । जिस समय हमारी विवक्षा भेद की अोर होती है उस समय अभेद गौण हो जाता है, और जिस समय हमारा प्रयोजन अभेद से होता है उस समय भेद गौण हो जाता है । भेद और अभेद का गौरण और प्रधान भाव से ग्रहण करना, नैगम नय है। दूसरे शब्दों में भेद का ग्रहण करते समय अभेद को गौण समझना और भेद को मुख्य समझना, और अभेद का ग्रहण करते समय भेद को गौण समझना और अभेद को मुख्य समझना, नैगम है। उदाहरण के लिए गुण और गुणी को लें। जीव गुणी है और सुख उसका गुण है । 'जीव सुखी है' इस कथन में कभी जीव और सुख के अभेद की प्रधानता होती है और भेद की अप्रधानता, कभी भेद की प्रधानता होती है और अभेद की अप्रधानता। दोनों विवक्षायों का ग्रहण नैगम नय है । कभी एक प्रधान होती है तो कभी दूसरी, किन्तु होना चाहिए दोनों का ग्रहण । केवल एक का ग्रहण होने पर नैगम नहीं होता। दोनों का ग्रहण होने से यह सकलादेश हो जाएगा, क्योंकि सकलादेदा में सम्पूर्ण वस्तु का कथन होता है, और वस्तु भेद और अभेद उभय रूप से ही सम्पूर्ण है । जब नैगम नय भेद और अभेद दोनों का १-प्रन्योन्यगुणभूतै कभेदाभेदप्ररूपणात् । गमोऽन्तरत्वोक्तो नेगमाभास इप्यते ॥ -लघीयत्यय २१५॥३६

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